Book Title: Jagatkartutva Mimansa
Author(s): Balchandra Maharaj
Publisher: Moolchand Vadilal Akola

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Page 67
________________ सब जीवों के शरीर की रचना अपने २ पूर्वकर्मानुबन्ध के अनुसार ही होती है। इस बात को जो न माने उससे हम पूछते हैं कि एक श्रीमान् , और दूसरा दीन, एक राजा, और दूसरा रंक, एक रूपवान्, और दूसरा कुरूप, एक ज्ञानी और दूसरा अज्ञानी, एक पंडित और दूसरा मूर्ख, ऐसी विचित्र रचना जगत् की क्यों दीख रही है ? क्या किसी ने ईश्वर का भला बुरा किया था ?। इससे सिद्ध हुआ कि जैसा २ जीवों का पूर्वकृत कर्मों का बन्ध होता है वैसा २ रूप-रंग-आकृति-मुखदुःख-ज्ञान-अज्ञान प्राप्त हुआ करता है । जगत्कर्ता मानने वाले निर्दूषण-निराकार परमात्मा को रागी-द्वेषी बनाकर कुम्भकार के समान संसारी जीवों के शरीरों (पुद्गल ) को रातदिन अर्थात् बराबर रचने का कलंक (दोष) निरर्थक देते हैं। ईश्वरवादी रागादि के बश से हठ नहीं त्याग करते, तो उनको उचित है कि इस बात को जरा शोचें कि ईश्वर ने जब जीवों को रचा उस समय निर्मल रचा या मलीन ? यदि निर्मल रचा कहियेगा तो धर्मशास्त्र (श्रुति-स्मृति-कुरान. बाइबिल वगैरह जगत् कर्ता मानने वालों के आप्तग्रन्थ) किसको पवित्र (निर्मल) करने को रचे गये? क्योंकि पवित्र शास्त्र तो मलीन को पवित्र करता है। जब जीवों को आदि से ही निर्मल रचा फिर मलीन होने का क्या कारण हुआ ? । एवं बुद्धि ईश्वरदत्त मानने से जीवों ने मलीनता स्वतः ली यह भी नहीं कह सकते और ईश्वरनेदी यह भी कहना अयुक्त है क्योंकि ईश्वर क्या जीवों को मलीन होने की दुर्बुद्धि देता है ? यदि कहा जाय कि परमेश्वर ने जीवों को मलीन ही रचा था तो क्या जीवों के पाप किये विना ही पापरूप मलीनता लगा दी ? यदि कहोगे हां, तो ऐसे अन्यायी को कौन बुद्धिमान् ईश्वर कह सक्ता है। यदि कहाजाय, कि ईश्वर स्वेच्छा से सब जीवों को सुख दुःख देता है तो मैं पूछता हूँ कि इच्छा ईश्वर से भिन्न है या अभिन्न ? यदि भिन्न है तो ईश्वर की इच्छा ही नहीं कह सकते, क्योंकि भिन्न होने से ईश्वर से कुछ संबन्ध नहीं है । यदि कहा जाय अभिन्न है अर्थात् ईश्वर में है तो क्षण भर में उत्पन्न होना और क्षण भर में विनाश होना, यह

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