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है तो क्या शंकर स्वामी ऐसा मार्ग नहीं सोध सके कि ज्ञान मार्गसेही अपने पन्थ की वृद्धि करते ! इससे यह सिद्ध होता है कि शंकर ने अज्ञान मार्गसेही अपने पन्थ को बढ़ाया है, और यह भी कहते हैं कि अज्ञानी लोगही शंकर के अज्ञान में फसे होंगे ! यदि वे पूरे ज्ञानी होते तो ऐसा मार्ग कभी न लेते ! जब आप सब शास्त्र अज्ञानात्मकही माते हैं तो शुद्ध ब्रह्म के लक्षण अज्ञानात्मक शास्त्रों में कहाँसे हो सकते हैं ! कहीं अज्ञान से ज्ञान प्राप्त होसक्ता है ! कदापि नहीं । इससे यह सिद्ध हो चुका कि आप के वेद वेदान्तादि शास्त्रों से सच्चा ब्रह्म का स्वरूप नहीं मिल सक्ता । और जैनों के शास्त्र पूर्ण ज्ञानात्मक हैं इससे सच्चा ब्रह्म का स्वरूप इनसे बराबर मिल सकता है । जैनलोग श्रुति स्मृति आदि वेद-वेदान्त शास्त्रों को न तो प्रमाण मानते थे और न अब मानते हैं । कहीं अज्ञान मार्ग से ज्ञान मार्ग की स्थापना हो सकती है; कभी नहीं । जैन लोगों के प्रश्नों के समाधान करने की शक्ति शंकर में नहीं थी क्यों कि शंकर स्वामी जैन शास्त्रों का रहस्य ही नहीं जानते थे ऐसा उनके ग्रन्थों से मालूम होता है । मण्डनमिश्र जैन नहीं थे किन्तु द्वैतवादी थे और उनकी स्त्री के साथ कामचर्चा में शंकरस्वामी को निरुत्तर होना पड़ा था । यदि पूर्णज्ञानी होते तो उसी समय उत्तर दे के समाधान कर देते ! जैनों के किसी भी ग्रंथ में शंकराचार्य की स्तुति की हुई हमारे देखने में नहीं आई यदि कोई बहादुर हो तो बतलावे हम स्वीकार कर सकते हैं । परन्तु हमारी समझ से यह केवल झूठ है । जैन किसी का भी उत्कर्ष देखकर नाराज नहीं होते । परन्तु इससे यह नहीं समझ लेना चाहिये कि जैन शंकर के मत को अच्छा समझे हैं, बल्कि जैन श्वेतांबराचार्य श्रीमान् हेमचंद्राचार्यकृत ब्रह्माद्वैतवाद का खंडन दिखाई दे रहा है। आप लोग जगत् का कारण ईश्वर अर्थात् ब्रह्म को मानते हैं यह भी आप की निरी भूल है हम इसी ग्रंथ के पृष्ठ १७ पर सिद्ध कर चुके हैं कि ईश्वर जगत का कारण सिद्ध होही नहीं सकता, इसलिये यहां लिखने की आवश्यकता नहीं है । यह ग्रन्थ किसी एक के सिद्धान्तों पर टीका करने के लिए नहीं लिखा गया है किन्तु जगत् के अनादि और अकर्तृजन्य सिद्ध करने के लिये रचा गया है । इस