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जाता है तद्वत् आस्मा सर्व शक्तिमान अर्थात् अनंत शक्तिमान होने पर भी कर्माधीन होने से परिभ्रमण करता है । जो जीव जैसा करता है वैसा फल भोगता है। कर्मों का फल देनेवाला दूसरा मानना भ्रम है । कर्मों का भुक्तभोग पूरा हो जाने से जीव मुक्त' हो जाता है । पूर्व संचित कर्मों को दूरकर आगामी कर्मों का बंध पड़ना रोक देवे तभी जीव की मुक्ति होती है । जगत् का कर्ता कोई नहीं स्वतः अनादि काल से प्रवाहरूप चला आता है । मुक्त जीव फिर संसार में लौट के नह्रीं आते । जो लोग मुक्त जीवों का फिर संसार में लौट आना मानते हैं उनमें वह बुद्धि का दोष है । सर्व पदार्थ स्वतः अपना अपना कार्य करते रहते हैं और काल, स्वभाव, नियति, उद्यम, और कर्म इन पांचों का समवायसंबंध, पदार्थो के संयोग में निमित्त है । जैसा कि सूत्र के तंतु के पुंज से पट की उत्पत्ति होने का समय इसको "काल" जानना और सूत्र के पुंज में पट की उत्पत्ति करने की योग्यता है इसको "स्वभाव" जानना । पढ के बनाने का पुद्गल जैसे रूई है इसको “नियति” सम झना, भवितव्यता-प्रारब्ध - दैव- अदृष्ट - जीवकृत धर्माधर्म, किंवा पुद्गलादि भी नियत का अर्थ होता है अथवा जिन जिन पदार्थों के जैसे २ स्वभाव हैं उन उन पदार्थों का वैसा वैसा जो परिणाम हो उसका भी नाम नियति है । जिस सूत्र के तंतु के पुंज से जिस पट की उत्पत्ति का जो निमित्त होना " वह " पूर्व कर्म" समझना चाहिए । और तंतु के पुंज से पट की उत्पत्ति करने का जो उद्योग करना उसको " उद्यम" जानना चाहिये । इन पांचों के समवाय संबन्ध के योग से सब कार्य होते हैं इसमें ईश्वर का कुछ काम नहीं । जड, चेतन पदार्थ स्वयं अनादि सिद्ध हैं । पुरुष बिना स्त्री नहीं, और स्त्री बिना पुरुष नहीं । बीज बिना वृक्ष नहीं, और बृक्ष बिना बीज नहीं। पृथवी, जल, वायु और आकाश इनके बिना, मनुष्यों की अथवा वृक्षों की स्थिति होना प्रायः दुःसाध्य है । जड़ और चेतन इन दोनों पदार्थों के अंतर्गत सब पदार्थों का समा
१ शरीरादि सर्व पदार्थों से आत्मा का आत्यन्तिक वियोग हो जाने का नाम मुक्ति है । जो आत्मिक सुखों में मम्न रहे उसे मुक्तात्मा कहते हैं ।