Book Title: Jagatkartutva Mimansa
Author(s): Balchandra Maharaj
Publisher: Moolchand Vadilal Akola

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Page 94
________________ ( ७२ ) को यह विस्मय हो रहा है कि बड़ी बड़ी अनेक 'नादयों के गिरने पर भी क्यों समुद्र अपनी हद से बाहर नहीं जाता ? इसी तरह आ ओर कौतुक के वशीभूत होकर प्राचीन ऋषियों ने प्राकृतिक पदार्थों को देवता मानना आरंभ कर दिया । इस आरंभ का अन्त कहाँ जाकर पहुँचा, इसे कौन नहीं जानता ? ऋग्वेद के ३३ देवता बढ़ते बढ़ते ३३ करोड़ हो गये । " " मीमांसा दर्शन के कर्ता जैमिनि का मत है कि "देवता" नामकोई सजीव पदार्थ नहीं है । "इन्द्र" कहने से इस शब्द को देवता मान लेना चाहिए। अपने दर्शन के छठे अध्याय में:“फलार्थत्वात्कर्मणः शास्त्र सर्वाधिकारं स्यात् " " इस सूत्र से आरम्भ करके आपने देवताविषयक बहुत सी बातें लिखी हैं | आप के कथन का सारांश यह है कि वैदिक देवताओं के न जीव है और न शरीर । यदि ये देवता शरीरी होते तो यज्ञ के समय आकर जरूर उपस्थित होते । सो तो होता नहीं । यदि यह कहें कि वे आते तो हैं पर अपनी महीमा के बल से हम लोगों की आँखों से अदृश्य रहते हैं तो भी ठीक नहीं । क्योंकि, इस दशा में, यदि दस जगह भिन्न भिन्न यज्ञ होंगे तो एक शरीर को लेकर वे कहाँ कहाँ जायँगे ? अतएव मंत्र ही को देवता मान लेना चाहिए । परंतु इस विषय में और अधिक न लिखना ही अच्छा है । १ यह फिर भी वैदिक ऋषियों की अज्ञता अल्पज्ञता का नमूना देख लीजिए कि जिनको संसार की परिस्थितिका का कुछ भी मालूम न था । २ जिन वेदों की रचना आश्चर्य और कौतुक के वशीभूत हुए वैदिक ऋषियों ने की है तिन वेदों में पारमार्थिक बातें कहाँ से हो सकती हैं। पक्षपात को त्याग के देखा जाय तो वेद सम्यक्पथद्रष्टा मालूम नहीं होते । ३ प्राकृतिक पदार्थों को देवता माना है इसका कारण प्रायः यह होना चाहिये किं वैदिक ऋषि सुरापान के वशीभूत होकर उन्मत्तता से चाहे उन पदार्थों पर कल्पना करने लग गये होंगे । क्योंकि सुरा का पान करने वालों के हृदय में शुद्ध विचार की जगह नहीं रहती और उद्द्वार विचारानुसार होता है इसलिये उन की बातों पर बुद्धिमान् मनुष्य विश्वास नहीं कर सकते ।

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