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( ५४ ) और इनके भी पूर्व काल से अज्ञान के ग्रहण करने की रीति चली आई थी। यह योगवासिष्ठ पर से और उनके ग्रन्थों पर से समझ सकते हैं। इसलिये पीछे से चला हुआ अज्ञान का ग्रहण करके उन (शंकराचार्य) को भाष्यों को लिखना पड़ा, और उससेही श्रुतियों की व्यवस्था लगी। कर्म, उपासना अज्ञानी को है, ज्ञानी को कुछ नहीं ऐसा स्थल २ पर आचार्य का कथन है। और एक अज्ञान को ग्रहण करने के लिये आभासवाद, ईश्वरवाद, इत्यादि वाद और तत्वमसि आदि वाक्यों की सार्थकता होने लगी, और श्रुति का भार अपने मस्तकपर लेने के कारण श्रुति के व्यवस्था के लिए उन्होंने सर्व पक्ष लिए हैं। अब कितनेक लोग आचार्यपर ऐसा आक्षेप करते हैं कि, झूठा अज्ञान लेकर सब व्यवस्था की सही; परंतु उन्होंने (शंकर ने) इस रीति से जगत् को फसाया है। एक दृष्टि से यह आक्षेप यद्यपि सच्चा मालूम होता है तथापि विचार करने से आचार्य ने जो किया वह ठीक किया है ऐसा मालूम होता है । " देखिए ब्रह्माद्वतवादीजी ! आपके शंकर तो सब शास्त्रों को और प्रत्यक्षादि शाब्द पर्यन्त प्रमाणों को अविद्यात्मक बतलाते हैं और उनके अनुयायी यह स्वीकार भी करते हैं कि शंकराचार्य ने अज्ञान का ग्रहण किया। भला कहीं अज्ञान के ग्रहण करने वालों को भी कोई ज्ञानी कह सक्ता है ! कभी नहीं। और जो अज्ञान का ग्रहण करके भाष्य लिखने पड़े तभी तो जैनलोग शंकर के कथन को अज्ञानी रचित कहते हैं। और जो आपका यह मानना है कि शंकराचार्य के पूर्व काल से ही अज्ञान ग्रहण करने की रीति चली आई थी तो इससे यह भी सिद्ध हो चुका कि वेद-वेदान्त दर्शन प्रथमसेही अज्ञान को ग्रहण करते चले आये हैं इसीसे सच्चे ज्ञान के ग्रहण करनेवाले जैन आपके अज्ञान के वाक्य नहीं मानते। भला कहीं अज्ञान को ग्रहण करने सेभी सार्थकता हो सकती है ! अज्ञान को ग्रहण करना अज्ञानियों का काम है, न कि शानियों का । ज्ञानीलोग अज्ञान का ग्रहण करना बुरा समझते हैं इस लिये वे अज्ञान को नहीं ग्रहण कर सकते। शंकर के अनुयायी इस बात को कबूल करते हैं कि:-"उन्होंने इसरीति से जगत् को फसाया है, एक दृष्टि से यह आक्षेप सच्चा मालूम होता है " यदि यह आक्षेप सचा