________________
कर सुनाता हूँ । उच्चश्रेणी के बुद्धिमान् लोगों के मानस निगूढ विचार ही दर्शन हैं। जैसे अजात वाद, विवर्त वाद, दृष्टि-सृष्टि वाद, परिणाम वाद, आरम्भ वाद, शून्यवाद इत्यादि दार्शनिकों के निगूढ विचार ही दर्शन हैं । बस तब तो कहना होगा कि सृष्टि की आदि से जैन मत प्रचलित है । सज्जनो ! अनेकान्तवाद तो एक ऐसी चीज है कि उसे सबको मानना होगा, और लोगों ने माना भी है । देखिए विष्णु पुराण में लिखा है:
नरकस्वर्गसंज्ञे वै पुण्यपापे द्विजोत्तम ! वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेर्ष्या जमाय च
कोपाय च यतस्तस्माद्वस्तु वस्त्वात्मकं कुतः ? यहाँ पर जो पराशर महर्षि कहते हैं कि वस्तु वस्त्वात्मक नहीं है, इसका अर्थ यही है कि कोई भी वस्तु एकान्ततः एक रूप नहीं है, जो वस्तु एक समय सुख हेतु है वह दूसरे क्षण में दुःख की कारण हो जाती है; और जो वस्तु किसी क्षण में दुःख की कारण होती है वह क्षण भर में सुख की कारण हो जाती है । सज्जनो ! आपने जाना होगा कि यहां पर स्पष्ट ही अनेकान्तवाद कहा गया है । सज्जनों ! एक बात पर और भी ध्यान देना जो "सदसद्भ्यामनिर्वचनीयं जगत्" कहते हैं उनको भी विचार दृष्टि से देखा जाय तो अनेकान्तवाद मानने में उन नहीं है, क्योंकि जब वस्तु सद् भी नहीं कही जाती और असद् भी नहीं कही जाती तो कहना होगा कि किसी प्रकार से सत् होकर भी वह किसी प्रकार से असत् है, इस हेतु न वह सत् कही जा सक्ती है और न तो असत् कही जा सक्ती है, तो अब अनेकान्तता मानना सिद्ध हो गया। सजनों ! नैयायिक तम को तेजोऽभाव स्वरूप कहते हैं और मीमांसक और वेदान्तिक बड़ी आरभटी से उसका खंडन करके उसे भाव स्वरूप कहते हैं तो देखने की बात है कि आज तक इसका कोई फैसला नहीं हुआ कि कौन ठीक कहता है तो अब क्या निर्णय होगा कि कौन बात ठीक है । तब