Book Title: Jagatkartutva Mimansa
Author(s): Balchandra Maharaj
Publisher: Moolchand Vadilal Akola

View full book text
Previous | Next

Page 86
________________ ( ६४ ) यथा: "अहे बुध्निय मन्त्रं मे गोपाय त्रयमृषयस्त्रयी वेदा विदुः ऋचो यजूंषि सामानि” मनुस्मृति में भी मनु ने -“ दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुः साम लक्षणम्” कहकर तीन ही वेदों का नाम लिया है। परंतु पीछे से चार वेद माने जाने लगे। श्रीमद्भागवत और विष्णुपुराण आदि पुराणों में तो सर्वत्र ही चार वेदों का उल्लेख है-लिखा है कि ब्रह्मा के एक एक मुँह से एक एक वेद निकला है ।" सनातन धर्मावलम्बियों का पक्का विश्वास है कि वेद नित्य है और वे ईश्वरप्रणीत हैं। कपिल ने सांख्य दर्शन में ईश्वर की स्थिति में तो सन्देह किया है " प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धिः " पर वेदों के ईश्वरप्रणीत होने में किसीने सन्देह नहीं किया । यथा:-न पौरुषेयत्वं तत्कर्तुः पुरुषस्यासम्भवात् " । न्याय दर्शन के कर्त्ता गौतम को छोड़कर सब दर्शनकारों की यही राय है । सब वेदों को ईश्वरकृत मानते हैं। अकेले गौतम ही ने उन्हें पौरुषेय अर्थात् पुरुषकृत लिखा है। अब नहीं कह सकते कि इस "पौरुषेय" से उनका क्या मतलब था । वे वेदों को साधारण हम तुम सदृश पुरुष के रचे हुए मानते थे, या पुरुष प्रकृतिवाले "पुरुष" (ईश्वर) से उनका मतलब था । यदि उन्हें पिछली बात अभीष्ट थी तो यह कहना चाहिये कि सभी दर्शनकारों की इस विषय में एकता है । किसी किसी मुनि की तो यहाँ तक राय है कि वेद नित्य है और उन्हीं के अनुसार ईश्वर सृष्टि की रचना करता है ? सो वेद ईश्वर के भी पथ' प्रदर्शक हुए ! वेद नित्य है, इससे कल्पान्त में वे हिरण्यगर्भ ● १ वेदों को ईश्वर के पथदर्शक मानने से वेद ईश्वर के रच सिद्ध नहीं होते और अनादि भी सिद्ध नहीं हो सकते इससे यही मालूम होता है कि वैदिक ऋषियों ने वेद रचे हैं । और दूसरी बात यह भी है कि वेदों को ईश्वर के पथदर्शक मानने से ईश्वर से भी वेदो की योग्यता विशेष हुई इससे ईश्वर न्यूनगुण हुआ और वेद पूर्ण - गुण हुए, देखिए यह कैसा भाश्चर्य है ! ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112