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का है। ऋग्वेद के सातवें मंडल में तो एक जगह एक ऋषि ने बड़ी दिल्लगी की है। सोमपान करने के अनन्तर वेद-पाठ-रत ब्राह्मणों की वेद-ध्वनि की उपमा आपने बरसाती मेंडकों से दीहै । ये सब बातें वेद के ईश्वरप्रणीत न होने की सूचक हैं । ईश्वर के लिए गाय, भैंस, पुत्र, कलत्र, दूध, दही मांगने की कोई जरूरत नहीं। यह ऋग्वेद की बात हुई । यजुर्वेद का भी प्रायः यही हाल है । सामवेद के मन्त्र में तो कुछ अंश को छोड़कर शेष सब ऋग्वेद ही से चुने गये हैं। रहा अथर्ववेद, सो वह तो मारण, मोहन, उच्चाटन और वशीकरण आदि मन्त्रों से परिपूर्ण है । स्त्रियों को वश करने और जुवे में जीतने तक के मन्त्र अथर्ववेद में हैं। अतएव इस विषय में विशेष वक्तव्य की जरूरत नहीं । न ईश्वर जूवा खेलता है और न वह स्त्रैणही है । न वह ऐसी बातें करने के लिये औरों को प्रेरणाही करता है । ये सब मनुष्यों ही के काम हैं; जिन्होंने वेदों की रचना की है।" ___'परन्तु ईश्वर-प्रणीत न होने से वेदों का महत्त्व कुछ कम नहीं होसकता । चाहे ऐतिहासिक दृष्टि से देखिए, चाहे धार्मिक दृष्टि से देखिए, चाहे विद्या विषयक दृष्टि से देखिए, वेदों की बराबरी और किसी देश का कोई ग्रन्थ नहीं कर सकता । प्राचीन समय की विद्या, सभ्यता और धर्म का जैसा उत्तम चित्र वेदों में पाया जाता है, अन्यत्र कहीं नहीं मिल सकता। वैदिक समय में भारतवासियों की सामाजिक अवस्था कैसी थी, वे किस तरह अपना जीवन निर्वाह करते थे, कहाँ रहते थे, क्या किया करते थे-इन सब बातों का पता यदि कहीं मिल सकता है तो वेदोंही में मिल सकता है । अतएव वेदाध्ययन करना हम लोगों का बहुत बड़ा कर्तव्य है।"
१ नहीं कह सकते कि जिन ग्रन्थों के विषय में यूत, स्त्रैणादि घृणाकारक विचार वेद विख्यात जी' कर आये हैं फिर उन्हीं के संबन्ध में उन्हें ऐसा लिखने का क्या कारण हुआ ! परन्तु अनुमान होता है कि शायद अन्य वैदिक लोंगो के भय से अथवा जैन साहित्य के अवलोकन के अभाव से, बलात् आदरणीय लिखना पड़ा हो !