Book Title: Jagatkartutva Mimansa
Author(s): Balchandra Maharaj
Publisher: Moolchand Vadilal Akola

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Page 75
________________ शंकर ने माने हैं । अविद्यामूलक संसार अपर विद्या का विषय है । सर्व बाह्य सृष्टि के स्थान पर केवल व्यावहारिक सत्यत्व होने से वह माया के योग से ब्रह्म पर आभास रूप से भासमान होता है तथापि संसार को बीजाङ्कुर न्याय से अनादिही मानना चाहिये । इसके सिवाय ईश्वर ने सृष्टि निर्माण क्यों की ? इस प्रश्न का योग्य उत्तर लोगों को कभी भी देना आताही नहीं। जगत् उत्पन्न करने में कर्ता का कुछ भी हेतु होना चाहिये परन्तु वैसा हेतु शुद्ध ब्रह्म के स्थान पर कदापि संभवित नहीं होता। वृक्ष सूख गया तो भी बीज रहता ही है और उससे दूसरा वृक्ष उत्पन्न होता है उसी रीति से मनुष्य मरा तो भी उसका कर्म बीज पुनर्जन्म का कारण होता है इस रीत्यनुसार यह उत्पत्ति और नाश की अनादि परंपरा निरन्तर चल रही है।' देखिये महाशय ! आप के शंकर ने इधर उधर फिरफिराकर अन्त में जगत् को अनादिही माना है । यद्यपि शंकर स्वामी ने संसार को अनादि योग्य रीति से जैसा चाहिये वैसा नहीं माना तथापि अन्त में उनको यह तो कहना ही पड़ा कि सृष्टि अनादि है । “शंकराचार्य व ज्ञानेश्वर" नामक महाराष्ट्र भाषा के पुस्तक में लिखा है कि:-"सर्व शास्त्रादि और प्रत्यक्षादि' प्रमाण अविद्यात्मक है" आगे फिर इसी पुस्तक में पृ. ३२, पं. १९में लिखा है कि:-"शंकराचार्य ने जो अज्ञान का ग्रहण किया है इसका कारण ऐसा है कि वेदान्त, कर्म उपासना इत्यादि विषयक हैं और इन सभों की व्यवस्था लगाने का काम आचार्य पर आके पड़ा था १-शंकराचार्य जी ने सृष्टि को जो अनादि कहा है वह तत्त्व उपनिषदों का नहीं है किन्तु जैन सिद्धान्तों का है इससे कह सकते हैं कि शंकर ने जैन सिद्धान्तों का आश्रय लिया है। और जो मनुष्य जिन सिद्धान्तों का आश्रय लेकर चलता है वह मनुष्य उन सिद्धांतों का क्या खण्डन कर सकता है ? अर्थात् नहीं कर सकता। २-यह निबंध, रा- रा. बाला शास्त्री हुपरीकर ने लिखा है और विष्णु गोविंद विजापुरकर, एम. ए. सम्पादक ग्रंथमाला ने कोल्हापुर श्री समर्थ प्रसाद छापाखाने में छपवाया है। . ...... ३-आदि शब्द से वेदादि शन्दप्रमाण भी अविद्यात्मकही समझना चाहिए ।

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