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भी कहना, यह किस युक्ति से सिद्ध होसक्ता है ! यदि माताही है तो बन्ध्या कैसे हो सकती है और यदि बन्ध्याही है तो माता कहना अयुक्त है । ब्रह्माद्वैतवादी जी ! आपके वचनों में यह प्रत्यक्ष विरोध आया या नहीं ? और जब आपके मत से जगत् का निमित्त और उपादान कारण ब्रह्मही है तो फिर माया को व्यवहारदृष्टि से सत्
और पारमार्थिक दृष्टि से असत् कहना यह दूसरों की तर्कताप से बचने का उपाय है या नहीं ? किन्तु इस वाग्जाल को, समझनेवाले तुरन्त समझ सकते हैं। जब जीव और ईश्वर दो नहीं हैं तो अविद्या (माया) के भ्रम में जीव क्यों फसते हैं। क्या जीव ईश्वर होकर भी माया से वंचित नहीं रहता ? शंकरस्वामी मंडनमिश्र की स्त्री से कामचर्चा में हार गये थे इससे तो वे स्वतः माया के फांस में फसे सिद्ध होते हैं। आपलोग जिस शंकराचार्य को सर्वज्ञ मानते हैं जब वेही माया के फांस में फसे तो उनके रचे शास्त्र अमायिक कैसे हो सकते हैं ? नहीं हो सकते । अत एव वेदान्तियों का ब्रह्माद्वैतवाद युक्ति विकलही ठहरा । जब जीव और परमात्मा में भेद नहीं है तो फिर व्यवहार दृष्टि से माया सत् और परमार्थ दृष्टि से असत् कहना अयुक्त है । भला कहीं ब्रह्म अर्थात् परमात्मास्वरूप जीव के भी दो दृष्टि होती हैं ? धन्य है आपकी प्रतिभा को! __ न्यायसिद्धान्तमुक्तावली की भूमिका में लिखा है कि"दर्शनकारों के परस्पर विरोध के मूलभूत भगवान् भाष्यकार भगवत्पाद श्री १०८ शंकराचार्यही हैं। इनसे प्रथम, सांख्य योगादि उत्तम सिद्धान्तों के निराकरण करने में किसी आस्तिक विद्वान् का साहस न हुआ था किन्तु सांख्यसिद्धान्तों के सहित उसके कर्ता को अप्रामाणिक ठहराने में तथा गौतम, कणाद को वैनाशिकतुल्य बतलाकर उनके सिद्धान्तों को धूली में मिलाने में एवं धर्ममीमांसा के मूलोच्छेदन में यह प्रथम २ भगवती भगवत्पादही की लेखनी प्रवृत्त हुई है " आगे फिर लिखा है कि
१ बंबई में क्षेमराज श्रीकृष्णदासजी के वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस में छपी है।