________________
(४८ ) कईलोग मुक्तिपांच प्रकार की मानते हैं-१सालोक्य-२-सामीप्य३-सायुज्य-४सॉर्टि-५एकत्व । किन्तु यहभी ठीक नहीं है; अब हम मुक्ति का सच्चा स्वरूप लिखते हैं, पढिए !:
(स्रग्धरावृत्तम्) नात्यन्ताभावरूपा, नच जडिममयी, व्योमवव्यापिनी नो, न व्यावृत्तिं दधाना विषयसुखघना नेक्ष्यते सर्वविद्भिः। सद्रूपाऽऽत्मप्रसादा दृगवगमगुणौघा न संसारसारा, निःसीमाऽत्यक्षसौख्योदयवसतिरनिष्पातिनी मुक्तिरुक्ता १
भावार्थ- बौद्धों की मानी हुई अत्यन्ताभाव स्वरूपवाली मुक्ति नहीं है, नैयायिक और वैशेषिकों की मानी हुई जडस्वरूपवाली भी मुक्ति नहीं है, आजीवक और आर्यसमाजियों की मानी हुई आकाश की तरह व्यापक और अन्य से व्यावर्तन स्वभाव को धारण करने वाली भी मुक्ति नहीं है, यवनों की मानी हुई विषय सुख से व्याप्त भी मुक्ति नहीं है, किन्तु सर्वज्ञों ने इससे विपरीत अर्थात् भावस्वरूप वाली आत्मा की प्रसन्नतावाली ज्ञान दर्शनादि अनेकगुण समूह वाली सांसारिक सुखों से रहित और निःसीम अतीन्द्रिय सुखवाली उदय का स्थान और फिर जिससे पतन नहीं (नित्य) है ऐसी मुक्ति है। मुक्त हुए बाद लोकाग्र भाग में अशरीरी होकर "जलतुम्बिका न्यायेन" स्थिर रहना माना है, आत्मा का मुक्तहुए बाद पुनः संसार में लौट आना मानना अयुक्त है । लोकाग्र भाग में आध्यात्मिक सुखो में मग्न रहना मानना युक्त है। पाठकवर्ग! विचार करें, कि मुक्ति का स्वरूप कौन सा युक्त है और कौन सा अयुक्त ? मुक्ति के संबन्ध में
१ विष्णुलोक में जाके रहना। २ ईश्वर के नजदीक जाके बैठना । ३ ईश्वर में युक्त होजाना अथवा ईश्वर से परस्पर मिलजाना । ४ ईश्वर के समान ऐश्वर्यवान होजाना। ५ ईश्वर के रूप में मिलजाना अथवा एक होजाना।''