Book Title: Jagatkartutva Mimansa
Author(s): Balchandra Maharaj
Publisher: Moolchand Vadilal Akola

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Page 45
________________ ( २३ ) आश्चर्य ही क्या ! धन्य है आपके ईश्वर को और आपको ! परंतु याद रखिये ईश्वर कभी अकार्य सुकार्य नहीं करता वह निरन्तर निर्दोष है अतएव सिद्ध हुआ कि कार्याकार्य होते हैं वे ईश्वर की इच्छा से नहीं किन्तु शुभाशुभ कर्मों से होते हैं । कितने सज्जनं यह सिद्ध करना चाहते हैं कि सृष्टि के आदि में जीव के शरीर और सांचे को बनाना ईश्वराधीन है पश्चात पुत्रादि सन्तति उत्पत्ति करना जीव का कर्तव्य है देखिए ! क्या जगत्कर्ता स्वीकार करनेवाले सज्जन ! इतने में ही थक गए !! और फिर ऐसा भी कहते हैं कि नाना प्रकार के कर्म जीव किया करते हैं उन कर्मों का करानेवाला ईश्वरही है अतः ईश्वर की प्रेरणा विना जीवों से कर्म नहीं हो सक्ते । देखिए ! यह कथन कितना पूर्वापर विरोध से भरा हुआ है एक स्थान पर कहना कि सृष्टि के आदि में जीव के शरीरका साँचा बनाना ईश्वराधीन है और दूसरे स्थल पर कहना कि नाना प्रकार का जीव कर्म करता है उन कर्मों का करानेवाला ईश्वरही है और दूसरे के तर्क - है-ताप से बचने के लिये किसी स्थल पर यह भी कह देते हैं कि जीव जैसा करता है वैसा पाता है देखिए ! ईश्वर को जगत्कर्ती माननेवालों के आप्त वाक्य में कैसा न्याय भरा है ? यदि नाना प्रकार के जीव कर्म करते हैं उन कर्मों का करानेवाला ईश्वरही है तो कर्मों का कर्ता भी ईश्वरही ठहरेगा क्योंकि क्रिया का प्रेरक ही कर्ता हो सक्ता है और जो कर्ता हो वही भोक्ता होना चाहिए, कर्ता के सिवाय भोक्ता अन्य नहीं ठहर सक्ता, और कर्ता भोक्ता ईश्वर को मानने से पाप पुण्य भी ईश्वर ही को लगना उचित है, जैसे किसी एक मनुष्य ने यष्टिका ( लकड़ी ) से किसी एक पुरुष को मारा, उसका पाप लकड़ी को कभी नहीं लग सक्ता, बल्कि मारनेवाले को ही लगा यह कहना होगा; तद्वत् जीव के किए हुए पाप पुण्य का प्रेरक ईश्वर होने से पाप पुण्य का भागी ईश्वर को ही मानना होगा, क्योंकि कर्म का कर्ता जीव तो यष्टिका के तुल्य है “कर्ता भोक्ता महेश्वरः " इस बात से सिद्ध हुआ कि जीव कुछ करता भी नहीं और भोक्ता भी नहीं जब कर्ता भोक्ता जीव नहीं है

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