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( २४ ) तो स्वख धर्मानुसार जो जो मनुष्य स्नान, सन्ध्या, मद्य मांस परित्याग, तप, जप, नियम, ध्यान, दान इत्यादि अनेक प्रकार के अनुष्ठान, पाप निवारण के लिए करने का कष्ट क्यों उठाते हैं और प्रायश्चित्तादि भी लेना वृथा ही होगा ? और सज्जन दुर्जन भी किसी को कहने की आवश्यकता नहीं है ? और कर्ता भोक्ता ईश्वर को कहने से हर्ष, शोक भी जीव को नहीं किन्तु ईश्वर ही को होता समझना चाहिए ! और जो यह कहावत है कि "जैसा करेगा वैसा पावेगा" यह सत्य नहीं है क्योंकि जब कर्ता भोक्ता ईश्वर है तो जीव क्योंकर पावेगा क्योंकि क्रिया का प्रेरक ईश्वर है। अनेक मनुष्यों के वृन्द हाथ जोड़ के भक्तिपूर्वक ईश्वर की प्रार्थना करते हैं कि "हे प्रभु ! हमारे पाप आप निवारण करो!" ऐसी प्रार्थना के स्थान पर ऐसी प्रार्थना क्यों नहीं करते कि "हे परमेश्वर तुम ही कर्ता और तुमही भोक्ता हो तुम्हारे किए पाप तुमही भोगो और तुमही अपने दूर करलो" और कर्ता भोक्ता ईश्वर के होने से प्राणिगण को प्रार्थना करने की भी आवश्यकता नहीं है। जगत् काकर्ता स्वीकार करने वालों के आप्त प्रन्थों में कहा है कि पाप दूर करने के लिये ईश्वर की प्रार्थना करना चाहिये और कर्ता भोक्ता ईश्वर को कहकर एक प्रकार से मनुष्यों को भ्रमजाल में फसाने का साहस करना है, अतएव सिद्ध हुआ कि कर्ता भोक्ता ईश्वर नहीं किन्तु जीवही है। जगत् कर्ता ईश्वर स्वीकार करने वालों का कहना है कि
"सर्वज्ञ ईश्वर" वेदादि शास्त्रों में जगत्कर्ता ईश्वर को सर्वज्ञ माना है, यदि सृष्टिकर्ता ईश्वर सर्वज्ञ है तो अपने प्रतिपक्षी रावण, वक्रदन्त, शिशुपालादि राक्षसों को क्यों उत्पन्न किया, यदि कहा जाय कि राक्षसयोनि ईश्वर की अज्ञता में उत्पन्न हुई है तो इस वाक्य से आप का जगन्नियन्ता ईश्वर सर्वज्ञ सिद्ध नहीं होता किन्तु असर्वज्ञ हुआ, जो संपूर्ण पदार्थों को निरन्तर और संपूर्ण रीत्या जानताही रहे उसी को सर्वज्ञ कहना उचित है परंतु आपके ईश्वर ने तो राक्षसयोनि अज्ञता में उत्पन्न की इससे आप