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आत्मा एकही है । यदि ऐसा हो तो एक व्यक्ति के पाप करनेपर सारे संसार को लगना चाहिए? और एक जीव मुक्त हो जाने से संपूर्ण संसार का मोक्ष हो जाना चाहिए ! एक प्राणि के बंधनयुक्त होने से सारे संसार को बंधयुक्त होना चाहिए ? भिन्न भिन्न, जीवों का अनुष्ठान (क्रिया) भी निष्फल होना चाहिए | परंतु यह बात तो दिखाई नहीं देती और पापी धर्मी, देव, नरक, ऊँच, नीच, चाण्डाल, ब्राह्मण, राजा, प्रजा, चोर, . साहूकार, पिता, पुत्र, माता, स्त्री, पुरुष, भाई, बहिन इत्यादि भिन्न भिन्न कैसे दिखाई पड़ते हैं अतः सिद्ध हुआ कि सब संसार में आत्मा एक नहीं किन्तु अनेक है ।
कितने कहते हैं कि जितने कार्याकार्य होते हैं वे सब ईश्वरीय इच्छा से होते हैं
“ममेच्छा कापि नास्ति ईश्वरेच्छा प्रवर्त्तते "
ईश्वरीय इच्छा से ही कार्याकार्य का होना मान लिया जाय तो विष खाने से मृत्यु, और धान्य भक्षण करने से क्षुधा की शान्ति, जल
तृषा की निवृत्ति, अग्नि से शीतहरण, ताप से खेदोत्पत्ति, वर्षा से धान्योत्पत्ति, द्वेष से वैरोत्पत्ति, नम्रता से स्नेहोत्पत्ति, चोरी से ताडन, पाप से नरक, पुण्य से स्वर्ग इत्यादि कारण और कार्य निरर्थक हो जायँगे, और जितने पदार्थ हैं वह सब अपने गुण दोषों से रहित मानना होगा, क्योंकि ऐश्वरीय इच्छा से ही संपूर्ण कार्याकार्य मान लिए जायँ तो राग करनेवाला स्नेही और द्वेष करनेवाला शत्रु यह कहना अनुचित होगा, क्योंकि राग द्वेष भी ईश्वरीय इच्छा से ही उत्पन्न होते हैं । संपूर्ण कार्य करने का मूल कारण एक ईश्वरीय इच्छा होने से पाप पुण्य का करनेवाला, और भोगनेवाला ईश्वर ही ठहरा ? यदि ऐसा है तो किसी को पापी, किसी को धर्मी कहने से क्या प्रयोजन है ? और आपका शुद्ध, जगन्नियन्ता ईश्वर कार्य के साथ में अकार्य भी जब कर - ता है तो डाकू लुटेरे आदि की उपमा उसको देना भी अनुचित न होगा, और उसके उत्पन्न किए हुए जीव अकार्य करने में प्रवृत्त हों तो उस में