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( २६ ) जोप्रतिपक्षी होकर ईश्वर से युद्ध करते हैं वे शीघ्र मुक्तिपद को चले जाते हैं और जो जीव ईश्वर की भक्ति करनेवाले हैं, अर्थात् भक्तजन हैं उनको मोक्ष देने में ईश्वर विलम्ब करता है अतः इस मन्तव्य को स्वीकार करने वाले सज्जनों को उचित है कि ईश्वर से भक्ति के बदले शत्रुता करें कि जिससे शीघ्र मुक्ति हो जाय और जो जो इस मन्तव्य को स्वीकार करनेवाले मित्र भक्ति करते होंगे वे बड़ीही भूल करते हैं, यदि शीघ्र मोक्ष प्राप्त करना हो तो ईश्वर से प्रतिपक्षी होने का प्रयत्न करें, कदाचित् इसीलिए राक्षसों ने यह सरल मार्ग स्वीकार किया होगा? और जो कहते हैं कि हमारे ईश्वर ने हमको आज्ञा दी है कि "मेरी. भक्ति करो। इसपर यह कहा जा सकता है कि सायत तुमको ईश्वर ने वञ्चित करके शीघ्र मुक्त न होने का उपाय बतलाया हो! यदि बुद्धिमान हो तो अपने ईश्वर का कथन कदापि स्वीकार नहीं करना जिससे तुम शीघ्र मुक्त होजाओ । देखिए ! सृष्टिकर्ता स्वीकार करनेवालों ने मोक्षप्राप्ति का कैसा उत्तम उपाय शोचा है।
जगत्कर्ता स्वीकार करनेवालों का कहना है कि ईश्वर जब संहार करता है उस समय (ईश्वर) स्वतः पहिले प्राग्वट वृक्ष के पत्ते पर जाके सो जाता है और जब सृष्टि रचने का विचार होता है तब जागता है । हम पूछते हैं कि जब सृष्टि का प्रलय हुआ उस समय प्राग्वट किस स्थान पर जा ठहरा था ? प्राग्वट सृष्टि में है कि बाहर! यदि सृष्टि के बाहर प्राग्वट मानोगे तो यह सिद्ध हुआ कि सृष्टि के बाहर भी कई पदार्थ हैं, यदि सृष्टिही में मानते हो तो सृष्टिप्रलय के साथ प्राग्वट का प्रलय क्यों नहीं हुआ और प्रलय के समय किस स्थान पर जा ठहरता है ? और आप लोगों का यह जो फरमाना है कि पृथ्वी जलमयी हो जाती है फिर उसके ऊपर केवल प्राग्वट ही दृष्टिगत होता है यदि ऐसा है तो यह स्वीकार करना होगा कि पृथ्वी, जल, वट, महाप्रलय के अनन्तर भी रहते हैं, यदि ऐसा आप मंजूर करेंगे तो प्रश्न उत्पन्न होगा कि ईश्वर ने संहार किन २ पदार्थों का किया? और महाप्रलय किस न्याय से हुआ।