Book Title: Jagatkartutva Mimansa
Author(s): Balchandra Maharaj
Publisher: Moolchand Vadilal Akola

View full book text
Previous | Next

Page 63
________________ ( ४१ ) होते हैं और कर्मा भोक्ता ईश्वर नहीं है किन्तु स्वतः जीव ही है और इसमें ईश्वर से कुछ सम्बन्ध नहीं है तो विवाद करने का कारणही नहीं रहता। व्यर्थ ईश्वर को कर्ता, हर्ता, सर्वव्यापक आदि कहकर संसारी दुःखों में विभक्त होने का कलङ्क देना बुद्धिमानों का काम नहीं है । क्योंकि ईश्वर अनादि अनन्त सुखों को छोड़कर सांसारिक दुःखों में विभक्त क्यों होगा ? ___ कई लोगों का यह मन्तव्य है कि सृष्टि ईश्वर की रचित होने से सब पदार्थों में ईश्वरीय कला है । यदि यह बात सत्य हो तो विद्वान् और मूर्ख में भेद क्यों माना जाता है ? क्या विद्वानों में ही ईश्वरीय कला है और मूों में नहीं है ? ऐसा हो नहीं सकता। जब सभी में ईश्वरीय कला है तो नाना प्रकार की विचित्र रचना संसार में क्यों है ? मनुष्य, घट पटादि पदार्थ को बना सक्ता है और श्वान, रासभ, शूकर, मार्जार, व्याघ्रादि पशु प्राणी, घट पटादि पदार्थ नहीं बना सकते, यह बात सब कोई जानते हैं । क्या पशुओं में ईश्वरीय कला नहीं है ? आप इन पशुओं को कलाहीन कहेंगे, या कला सहित ? आपका तो यह मन्तव्य है कि सब पदार्थों में ईश्वरीय कला है फिर पशु मूर्खादि अनेक कार्य करने में और विचारशक्ति में हीन क्यों हैं ? यदि यह कहा जाय कि सब में समान कला नहीं है किन्तु न्यूनाधिक है तो आपका ईश्वर अन्यायी ठहरा ! एक को विशेष कला देना और दूसरे को न्यून देना यह पक्षपात हुआ या नहीं ? क्या ईश्वर का भी कोई शत्रु मित्र है ? या उसको किसी की ओर से लाभ या हानि होने का संभव है ? कि जिससे किसीको न्यून और किसीको अधिक कलाएँ देनी पड़ीं ! यदि उसके शत्रु मित्र नहीं हैं तो यह अन्याय हुआ या नहीं ? हमारी समझ से तो पदार्थों में ऐश्वरीय कलाएँ मानना अनुचित है। कितनेक कहते हैं कि जगन्नियन्ता प्रभु भक्तवत्सल है और खेच्छा से अवतार (जन्म) धारण करता है । यदि ईश्वर भक्तवत्सल है तो भक्तजन ज्वर ताप, आधी व्याधी, जन्म जरा मृत्यु वगैरह अनेक प्रकार के दुःखों से दुःखी क्यों दीखते हैं ? यदि भक्तवत्सले हो तो अपने भक्तों को बड़े बड़े कष्ट क्यों पाने देता है. ? असंख्यात .

Loading...

Page Navigation
1 ... 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112