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पूषाऽन्धकादीच मृधे जयाम,
मुक्तिप्रदः स्यात् कतमरत्वमीषु" HAR भावार्थ-नीलकण्ठ [शिवजी ने क्रोध में आकर, जो राक्षसों के आकाश में तीन नगर (त्रिपुर) थे उन्हें जला दिया ( भस्म कर दिया) और पूषान्धकादि दैत्यों को युद्ध में मार डाला । बतलाइए ! उपर्युक्त गुणवाले आपके त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु, शिव, मुक्ति पद को कैसे दे सकते हूँ ? नहीं दे सकते और जगत्कर्ता भी नहीं कहे जा सकते । इसलिये आपलोग ईश्वर को जगत्कर्ता मानकर बड़ी भूल में पड़े हैं। क्योंकि जो काम,क्रोध, लोभ और मोह से युक्त हो वह किस न्याय से ईश्वर कहाजासकता है ? कभी नहीं। देखिए आपके मत के महार्ष भतहरि ने भी कर्म को प्रधान मान कर समस्त देवताओं को उसके वशीभूत माना है:"नमस्यामो देवाननु हताविरोपि बशमा .
विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकमैकफलदः । फलं कर्मायत्तं किममरगणैः किंच विधिना, ... नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति"॥९५॥ ... भावार्थ-हम इन्द्रादिक देवताओं को नमस्कार करते हैं परन्तु देवता विधि के वश हैं इससे विधि को नमस्कार करना उचित है किन्तु विधाता भी पूर्व कृत कर्म के अनुसारही फल देता है । यदि विधि स्वतन्त्र नहीं है आर फल कर्म के आधीन है तो देवता और विधि से हमें क्या प्रायोजन है, इससे मैं कर्म को ही नमस्कार क्यों न करूँ क्यों कि विधाता का भी कर्म पर सामर्थ्य नहीं है ।
"ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे, _ विष्णुर्येन दशावतारमहने क्षिप्तो मह्मसङ्कटे । रुद्रो येन कपालपाणिषुटके भिक्षाटनं कास्तिः,