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वश सुने, वे किसी कारण उसके शीघ्र ही मन में भर जाते हैं किन्तु उनके तात्पर्यार्थ के पूर्ण ज्ञान न होने से उन शब्दों का रूढ़ अर्थ किस विषय पर है और आनुषङ्गिक अर्थ किस पर है अर्थात् कौनसा अर्थ किस स्थान पर उचित है यह न समझकर केवल आनुषङ्गिक अर्थ पर ध्यान देने से उसकी बुद्धि में अवश्य ही भ्रम हो जाता है और भ्रम के होने से विचारों में भी दोष आने का संभव है और उक्त दोष के कारण न तो विचारों की संदिग्धता दूर होती है और न वे शुद्ध विचारों को प्रकट कर सक्ते हैं। जो महाशय स्वतः पूर्णतया नहीं समझ सक्ते तो वे दूसरों को किस प्रकार समझा सक्ते हैं, कदापि नहीं, कदापि नहीं ! कतिपय महाशय भस्मावच्छन वक्तृता (व्याख्यान) देकर या लेख लिखकर अपनी वाक्चातुरी से अल्पज्ञ लोगों के सामने विद्वान् बनने का दावा करते हैं परन्तु पूर्ण सत्यशोधक विद्वानों के सामने उनकी वाक्चातुरी नहीं चल सक्ती क्योंकि जो विद्वान् होते हैं वे जान जाते हैं कि यह कैसे व्याख्याता वा लेखक हैं; किसी शास्त्रकार का कथन है कि "नास्तिकोऽपि वरं शत्रुर्भस्माछन्नो न जैमिनिः" तात्पर्य यह कि जो लोग असंदिग्ध व स्पष्ट भाषणादि कर सक्ते हैं वे सम्यक्रीत्या समझा सक्ते हैं किन्तु जिनके समझने में ही भूल हो वे बोलने में अथवा लिखने में भूल करें तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।
जगत का कर्ता ईश्वर है अर्थात् सृष्टि ईश्वर की रची हुई है इस बात को स्वीकार करने वाले वेदमतानुयायी, नैयायिक, वैशेषिक, शाक्त, शैव, वैष्णव, मुसलमान व ईसाई आदि मतवालों की वाक्विडंबना बड़ी ही आश्चर्य-जनक है उक्त मतवालों ने संदिग्ध शब्दों में जगनियन्ता ईश्वर के सिद्ध करने का पूर्णतया साहस किया है किन्तु उनके विचार युक्तिसंगत कदापि नहीं हो सक्ते । देखिए उनके वेदों में भी सृष्टिरचना के लिए एक मत नहीं है निम्न लिखितं मैत्रों से आप को विदित हो जायगा कि इनके शास्त्रों में कितना पूर्वापर विरोध है।