Book Title: Jagatkartutva Mimansa
Author(s): Balchandra Maharaj
Publisher: Moolchand Vadilal Akola

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Page 38
________________ ( १६ ) उचित है व जन्म, जरा, मृत्यु आदि दुःख का भी मागी होना होगा, निरावरणता नष्ट होकर सावरणताप्राप्त होगी इत्यादि अनेक दोष प्राप्त होने का संभव है, ऐसा कौन मूद है कि जो उत्तम पद को त्याग अधम पद प्राप्त करने की इच्छा करेगा! ईश्वर संपूर्ण सुखमय होकर उसको संसार के दुःखों में आकर फसने की क्या बुद्धि हुई! क्योंकि जीव स्वतः परम ‘पद अर्थात् ईश्वरपदाभिलाषी होकर जान भक्ति आदि करता रहता है और सांसारिक बन्धन से मुक्त होना चाहता है, परंतु आपके बचन तो बडे ही आश्चर्यजनक हैं, धन्य है ! आप के कर्ता हर्ता ईश्वर को कि जो स्वतः सांसारिक दुःखो में भाग लेने को विभक्त होता है ! कितनेक कहते हैं कि यह संसार ईश्वरीय विभूति है अर्थात् जीव ईश्वर का अंश है इस वाक्य से यह ध्वनित होता है कि जीव और ईश्वर में अंशांशी भाव संबन्ध है । यदि क्षण भर के लिए कदाचित् ऐसा ही मान लिया जाय तो जीव ईश्वर के सदृश होना चाहिए ! क्योंकि अशांशी में भेद नहीं हो सक्ता ।सारांश यह कि ईश्वर के तुल्य जीव को भी निर्मल होना चाहिए ? यदि जीवों को निर्मल स्वीकार करेंगे तो कर्म रूप मल लगाने का क्या प्रयोजन हुआ ? ईश्वर जीव को अपना अंश जानते भी कर्म रूप मल लगाता है यह कितना आश्चर्य है और जीव ईश्वर का अंश होने से नरकगामी ईश्वर भी हुआ । सुखी हो वह भी ईश्वर और दुःखी हो वह भी ईश्वर, संसार परिभ्रमण करै वह भी ईश्वर, इससे तो सिवाय ईश्वर के कोई भी स्थल शून्य नहीं ठहरा । यदि ऐसा है तो वैर, विरोध, कलह, मुख, दुःख, दीन, दरिद्री, पापी, हत्यारा इत्यादि सव ईश्वरही ठहरा, कर्ता भी वही और भोक्ता भी वही। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अतिशूद्रादि में ईश्वर व्यापक है तौ फिर ब्राह्मण को उत्तम और चाण्डालादिक को नीच मानने से क्या प्रयोजन ? क्योंकि ईश्वर तो सर्व जीवों में व्यापक है। आश्चर्य है कि अपने अंश को घात करनेवाला ईश्वर आपही है ! यह विचारने का स्थान है कि स्वतः अपने अंशो को घात करने से घातकी ठहरा, और घातक रूप कलंक युक्त स्वतः ही है तो दूसरों के कलंक दूर करने की सामर्थ्य

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