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सतो बन्धुमसति निरविन्दन् । हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा । तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषां । अधस्विदासी३ दुपरि स्विदासी३त् । रेतोधा आसन् महिमान आसन् । स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ॥
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तैत्तिरीय ब्राह्मण का० २ । प्र० ८ । अ० ९
उक्त वाक्यों में पूर्व सृष्टि का प्रलय होकर उत्तर सृष्टि उत्पन्न होने के प्रथम सत्, असत्, आकाश, जल, मृत्यु, अमृत, रात्रि, दिन, सूर्य, चन्द्र इत्यादि कुछ भी नहीं थे केवल ब्रह्म मात्र ही था उसकी सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा हुई और फिर सब जगत उत्पन्न हुआ इत्यादि. वर्णन कर के पुनः आगे निम्न लिखित वर्णन है
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को अद्धा वेद क इह प्रवोचत् । कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः । अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनाय । अथा को वेद यत आ बभूव । इयं विसृष्टिर्यत आ बभूव । 1 यदि वा दधे यदि वा न । यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् । सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद । किंस्विद्वनं क उ स वृक्ष आसीत् । यतो द्यावापृथिवी निष्टतक्षुः ॥
तैत्तिरीय ब्राह्मण का ० २ । प्र० ८ । अ० ९
उक्त मंत्र वाजसनेयसंहिता के अध्याय १७ का ३२वां है एवं ऋग्वेदसंहिता के अ० १० । १२९वां है । भावार्थ इस मंत्र का यह है कि यह विविध सृष्टि किस से व किसलिए उत्पन्न हुई यह वास्तव में कौन जानता है ? वा कौन कहने को समर्थ है ? देवता भी पीछे से हुए फिर जिससे यह सृष्टि उत्पन्न हुई इस बात को कौन जानता है ? जिससे द्यावा, पृथ्वी हुई वह वृक्ष कौन सा व वह किस बन में था यह कौन जानता है ? इन सभों का अध्यक्ष परमाकाश में है वही