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द्रजीको स्थापित कर दिये. और केसरीसिंहसूरि ऐसा आचार्य पद. वीका नाम दे दिया. उस समय आपने इनको आचार्य करनेमें अपनी सम्मति बिलकुलही नही दी किन्तु निषेध किया था क्योंकि आचार्य होनेके लायक आपके बड़े गुरू भाई श्री मुलतानचन्द्रजी थे यदि मुलतानचन्द्रजीकों आचार्य कर देते तो गच्छकी शोचनीय दशा नहीं होती. परन्तु कई कुटिल, विघ्नसंतोषी यतिश्रावकोंने स्वार्थ साधनके लिये अनुचित कार्य करनेको नही डरे, और प्रस्तुत भी हमारे गच्छमें यति नामको कलंक लाने वाले कई अधम यति ऐसे बेठे हुये हैं कि उनके बैठे गच्छकी उन्नतिकी आशा रखना आकाश पुष्पवत है, अस्तु. अयोग्य कार्य बना देख आपका विचार परदेश गमन करनेका हुआ किन्तु श्री केसरीसिंह ने आपको जाने नहीं दिया, इन दिनोंमें आपके उपदेशसे एक कार्य ऐसा हुआ कि जिसकी प्रशंसा किये बिना सारे जैन समाजसे नहीं रहा जा सका, और वह यह हुआ कि श्रीयुत् धर्मचन्दजी सुराणेकी धर्म पनिने शत्रुजयादि तीर्थोकी यात्रा करने को संघ निकालनेका निश्चय किया. सं. १९१७ के मार्गशीर्ष बदीमें बीकानेरसे संघ रवाना हुआ इस संघमे गाड़ी ५००, ऊंठ ४००, घोड़े १०० और मनुष्य संख्या करीब ५००० की थी यति साधु साधवी केरिब सो ठाणा श्रीके साथमें थे, संघ रक्षार्थ बीकानेर महाराजकी ओरसे कई घोड़ेसवार भी दिये गये थे. दर्शन पूजनके लिये एक देरासर साथ चलता था. देरासरकी रेख देख आपही करते थे. संघ नागोर फलोधी ( पार्श्वनाथ ) कापरडा, पाली, वरकाणा, नाडोल, नाडोलाई, राणपुर, मुच्छाला महावीर, इत्यादि पंचतीथी, सिरोही, आबूराज, पालणपुर, संखेश्वर, राधनपुर, वडनगर, बसिनगर, पाटण, ( हेमचन्द्रा. . चार्य ) सिद्धपुर, आदि अनेक तीर्थोंकी यात्रा करता हुआ संघ शत्रुजयकी तराटी शहर पालिताणेमें पहुंचा और सहर्ष सिद्धगिरि की यात्रा की अंदाज एक मास पर्यंत संघ पालिताणेमें रहा. तदनंतर शत्रुजय निकटकी पंचतीर्थी-और गोगा-नवखण्डा पार्श्वनाथजी की यात्रा करके गिरनार पर्वतकी तराटी शहर जुनागढ़ को संघ पहुंचाऔर रेवताचल ( गिरनार ) पर्वत उपर चढ़कर श्री अरिष्ठनेमी भग.