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सर्वप्रथम हिन्दी भाषा में यह विवेचन वि. सं. २०२५ में, दो भाग में प्रकाशित किया गया था । दो भागों के अनुवादक अलगअलग थे, इसलिये भाषा की दृष्टि से यह ग्रन्थ रसपूरणे नहीं बना था। दूसरी ओर, उसकी सारी प्रतियां भी समाप्त हो गई थीं।
मैं यह चाहता था कि इस ग्रन्थ का आद्योपांत अनुवाद एक ही लब्धप्रतिष्ठ सिद्धहस्त विद्वान् से हो । और ऐसे विद्वान, पूना के मेरे पूर्वपरिचित श्री रंजन परमार मिल गये । हिन्दी अनुवाद के वे सिद्धहस्त लेखक हैं । अनेक किताबों के हिन्दी अनुवाद उन्होंने किये हैं। परंतु ऐसे तत्त्वज्ञान के ग्रंथ का अनुवाद करना, उनके लिये भी पहला अवसर था । उन्होंने पूरी लगन से अनुवाद किया...मैंने संमार्जन.... संशोधन किया और बेंगलोर में साध्वी भाग्यपूर्णाश्री एवं कु० चन्द्रकान्ता संघवी ने प्रेस कापी तैयार की । मेहसाना के सुरेख प्रिन्टर्स ने एवं भावना प्रिन्टरी ने इस ग्रंथ को मुद्रित किया और आज यह ग्रंथ प्रकाशित होने जा रहा है ।
जो कोई आत्मार्थी साधक मनुष्य इस ग्रंथ का स्वाध्याय करेगा, पुनःपुनः अध्ययन करेगा, उसको अवश्य मन की शांति, चित्त की प्रसन्नता और आत्मा की पवित्रता प्राप्त होगी । सभी आत्मायें इस तरह शांति, प्रसन्नता और पवित्रता प्राप्त करें, यही मेरी निरंतर भावना रहती है।
इस विवेचन-ग्रंथ में प्रमाद से या क्षयोपशम की मंदता से कुछ भी जिनाज्ञाविरुद्ध लिखा गया हो...उसका 'मिच्छामि दुक्कडं ।'
- भद्रगुप्तविजय
आसोज शुक्ला-१ वि. सं. २०४२ कोइम्बतूर [तमिलनाडु]
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