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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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वह उन्हें कर या भोग तो नहीं सकता; उसे विपरीत मान्यता का मिथ्यात्व लगता है। उस जीव को आचार्यदेव ने आत्मा का सच्चा स्वभाव समझाया है कि जिसे अनुभव में लेते ही परमसुख और धर्म होता है। ___गुण-गुणी अभेद है, इसलिए जैसे शुद्धज्ञान, कर्म के बन्ध -मोक्ष को अथवा उदय-निर्जरा को नहीं करता; उसी प्रकार शुद्धज्ञानपरिणत जीव भी उन्हें नहीं करता। शुद्धउपादानरूप चैतन्यस्वभाव और उसके भानरूप शुद्धज्ञानपर्याय में कहीं पर का-राग का, कर्ता-भोक्तापना नहीं है। 'शुद्धज्ञान' कहने पर, स्वभावसन्मुख ढली हुई ज्ञानपर्याय अथवा अभेदरूप से उस ज्ञानपर्यायरूप से परिणमित जीव को राग का कर्ता-भोक्तापना नहीं है; त्रिकाली वस्तु में नहीं है और उसे अनुभव करनेवाली पर्याय में भी नहीं है। ___ - यदि आत्मा पर को करे - भोगे, तो दोनों पदार्थ एक हो जायेंगे। .. - रागादिक भी उपाधिभाव हैं, वे सहज शुद्धज्ञान का कार्य नहीं हैं।
. ऐसे स्वभाव की शुद्धदृष्टिरूप से परिणमित जीव, शुद्ध उपादानरूप से रागादिक को नहीं करता। वह अपने निर्मलभावों को करता है परन्तु पर को नहीं करता। रागादि विभाव का कर्तृत्व - भोक्तृत्व अशुद्ध उपादान में है परन्तु जहाँ अन्तरदृष्टि से शुद्ध. उपादानरूप से परिणमित हुआ, वहाँ उन अशुद्धभावों का कर्तृत्व नहीं रहता।