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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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और परसन्मुख मलिनभाव, दुःख है। स्वसन्मुख होने के लिए स्वतत्त्व कैसा है? यह उसकी पहचान चलती है। बापू! तेरे वास्तविक स्वतत्त्व को तूने कभी नहीं जाना है। अरे! बहुत से जीवों को तो स्वतत्त्व की बात ही कभी सुनने को नहीं मिलती। स्वतत्त्व में भी दो पहलू - एक त्रिकाली ध्रुव द्रव्यरूप, दूसरा क्षणिक उत्पाद -व्यय पर्यायरूप।
अब, जिस भाव से जीव को दु:ख होता है, वह भाव, क्षणिक है; वह त्रिकाल नहीं है। यदि वह क्षणिक न हो और त्रिकाल हो तो वह दु:ख मिटकर, सुख का भाव कहाँ से हो सकेगा? परन्तु दुःख मिटकर, सुख हो सकता है क्योंकि वह भाव, द्रव्यरूप नहीं, परन्तु पर्यायरूप है। अब, दुःख मिटकर जो सुख हुआ, अर्थात् मोक्षमार्ग हुआ, वह भी पर्यायरूप भाव है और द्रव्यरूप शुद्धजीव तो सदा एकरूप अविनाशीपने त्रिकाल कायम परमभाव है। एक आत्मवस्तु में इतने भाव समाहित होते हैं, उन्हें जानना चाहिए। जीववस्तु एक, परन्तु उसमें भाव दो - (
1 लय का जीवत्व; (2) द्रव्यनय का जीवत्व। ऐसे टीव -वस्तु पहचाने, तब धर्म होता है, तब दुःख ता है और मोक्षमार्ग प्रगट होता है। ...
यह तो अन्दर का मार्ग है; यह को
आत्मा का कायम रहनेवाला जो ह. . नहीं है अथवा मोक्षरूप नहीं है। बन्ध के नाम या मोक्ष के शुद्धपरिणाम - ये दोनों पर्याय में होते हैं, नहीं; इसलिए द्रव्य स्वयं बन्ध-मोक्ष का कारण नहीं है - ऐसा यहाँ बतलाया है। बन्ध-मोक्ष का कारणपना पर्याय में होता है। जीव की मोक्षपर्याय