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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
तो उस भावना का फल है। सम्यक्त्व, चौथे से सातवें गुणस्थान तक औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक तीन में से किसी भी प्रकार का होता है। पश्चात् श्रेणी में क्षायोपशमिकसम्यक्त्व नहीं होता, उपशम या क्षायिक ही होता है। किसी जीव को उपशम -सम्यक्त्वसहित उपशमश्रेणी होती है और किसी जीव को क्षायिक -सम्यक्त्वसहित उपशमश्रेणी होती है परन्तु क्षपकश्रेणी तो नियम से क्षायिकसम्यक्त्वसहित ही होती है। धर्मी का ज्ञान तो चौथे से बारहवें गुणस्थान तक क्षायोपशमिकभावरूप ही होता है, पश्चात् केवलज्ञान होता है, वह क्षायिकभावरूप है। केवलज्ञान होने के बाद भावना करना या एक ओर ढलना नहीं रहता है। ___अरे जीव! अपने ऐसे उत्तम तत्त्व की भावना तो कर! ऐसे तत्त्व के अनुभव की तो क्या बात ! उसका विचार करे तो भी शरीर
और रोग सब विस्मृत हो जाए - ऐसा है। शरीर की सम्हाल, अर्थात् ममता के कारण आत्मा को भूल रहा है, उसके बदले शरीर को भूलकर आत्मा की सम्हाल करना! शरीर कहाँ तेरे सम्हाले सम्हलता है ? तू चाहे जितनी सम्हाल कर, तो भी वह तो उसके काल में छूट जानेवाला है, उसकी ममता करके तू व्यर्थ ही दुःखी होगा। कहाँ मृतक-कलेवर शरीर और कहाँ आनन्द से भरपूर आत्मा! दोनों जरा से एक क्षेत्र में रहे वहाँ तो आत्मा अपने को भूलंकर शरीररूप ही स्वयं को मान बैठा। बापू! तू शरीर नहीं, तू तो अरूपी आनन्दघन है; जाननेवाला जागृतभाव वही तू है – ऐसे आत्मा को लक्ष्य में ले।
-- आत्मतत्त्व, देहादि से तो सदाकाल भिन्न है; राग से भी उसका . स्वरूप भिन्न है। अब, अभेद से देखो तो निर्मलपर्यायरूप परिणमित