Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 229
________________ 220 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा आत्मा का स्वभावभूत नहीं हैं। बन्ध-मोक्ष का कारण, बाहर में नहीं है और अपने ध्रुव में भी नहीं है, अन्दर अपनी पर्याय में ही है। .. जो लोग अन्दर के सूक्ष्म भावों को नहीं पहचानते हैं, वे बाहर की क्रिया द्वारा बन्ध-मोक्ष मानकर उसके कर्ता होते हैं। भगवान महावीर ने अथवा भगवान ऋषभदेव ने मुनिदशा में अन्दर की अनुभवदशा के आनन्द का वेदन करते-करते चैतन्य के प्रतपनरूप तप किया था, वहाँ आहार की इच्छा सहज ही टूट गयी, वहाँ भगवान की अन्तरदशा को नहीं देखनेवाले जीवों ने तो आहार नहीं आने को ही तप मान लिया और इस प्रकार स्वयं भी अनाज न खाने में तप मान लिया। ____ जैसे एक बहिन चावल कूट रही थी, उसमें दाना कसदार होने से ऊपर नहीं दिखता था, ऊपर तो छिलका दिखता था। उसे देखकर 'यह बहिन छिलके कूट रही है' - ऐसा समझकर एक मूर्ख महिला, घर जाकर छिलके का ढेर कूटने बैठ गयी परन्तु छिलके कूटने से कहीं चावल निकलते हैं ? उसी प्रकार बाह्य दृष्टिवाले अज्ञानी भी जड़ की बाह्य क्रियाओं को धर्म मानकर छिलके कूटने जैसा कार्य करते हैं; कसदार अन्दर की वस्तु को वे नहीं देखते। भगवान के अन्दर अतीन्द्रिय आनन्द का जो वेदन था और जो राग के कर्तृत्वरहित ज्ञानभाव था, वह अज्ञानी ने नहीं देखा; उसका मार्ग देखा नहीं और बाहर में अनाज नहीं खाया; . इसलिए हम भी भगवान जैसा तप करते हैं – ऐसा मान लिया। अरे कहाँ भगवान का तप और कहाँ तेरा भ्रम ! तू तो तप के नाम से जड़-चेतन की एकताबुद्धि का मिथ्यात्व सेवन कर रहा है, तब फिर तप कैसा? चैतन्य के भान बिना तुझे पता नहीं पड़ता कि

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