Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 241
________________ 232 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा वस्तु, द्रव्यरूप से कायम रहकर पर्याय में उलट-पुलट होता है - ऐसी उसकी अपनी शक्तियाँ हैं । यदि वस्तु बदलती न हो तो दुःखदशा का नाश होकर सुखदशा की प्राप्ति कैसे हो सकती है ? और यदि ध्रुव न रहती हो तो एक अवस्था का नाश होने के बाद दूसरी अवस्था किसके आधार से होगी ? इसलिए द्रव्य - पर्यायस्वरूप वस्तु है, उसे पहचानना चाहिए, उसे पहचानकर स्वभावसन्मुख एकाग्र होने पर आनन्द के वेदनरूप दशा प्रगट होती है - ऐसी क्रिया को ध्यान कहो, मोक्षमार्ग कहो, या धर्म कहो। पहले विकार के वेदन में एकाग्र था, उसके बदले अब शुद्ध स्वभाव के आनन्द के अनुभव में एकाग्र हुआ । इस प्रकार पर्याय का परिवर्तन हुआ परन्तु उसका ध्येयरूप ध्रुव तो ध्रुव ही रहा है। देखो! यह वीतरागी न्याय है। ज्ञान को सत्यस्वभाव की ओर ले जाए, अर्थात् अन्तर में जैसा स्वभाव है, वैसा ज्ञान करे, वह सम्यग्ज्ञान ही सच्चा न्याय है । लौकिक न्याय की अपेक्षा यह अन्तर का अलौकिक न्याय त्रिकाल सत्य को सिद्ध करनेवाला है: वह तीन काल में बदलनेवाला नहीं है । आत्मा का सत्यस्वरूप जैसा है, वैसा भलीभाँति ज्ञान में आये बिना आत्मा को नहीं साधा जा सकता, अनुभव नहीं किया जा सकता। टिकता और बदलता - ऐसे दो अंश होकर पूरा आत्मतत्त्व सिद्ध होता है । पर से पृथक्, शरीर से भिन्न, कर्म से भिन्न और राग से भी पृथक् - ऐसी चैतन्य धातु - जिसने ज्ञानानन्दस्वभाव को धारण किया है, वह त्रिकाल शक्तिरूप ध्रुव शाश्वत् है और अवस्था बदलती है। उसके शुद्धस्वरूप को ध्येय बनाने से अवस्था में विकार मिटकर निर्विकल्पदशा होती है। वह अवस्था स्वयं स्वयं

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