Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 246
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा पर्याय ही है, दूसरा नहीं और ध्रुव भी नहीं। इस अपेक्षा से क्रिया, वह पर्याय है और ध्रुव, वह अक्रिय है । इस प्रकार एक ध्रुवरूप अक्रियभाव (द्रव्य) और दूसरा उत्पाद - व्यय की क्रियारूप भाव (पर्याय) ऐसे द्रव्य-पर्यायस्वरूप आत्मवस्तु है, वह चैतन्य भावरूप है और स्वानुभव से ज्ञात होती है। 237 1 1 अहो ! आत्मा का ऐसा परम सत्य ! यह परम सत्य बारम्बार सुनने योग्य है, समझने योग्य है और अनुभव में लेने योग्य है । अन्दर बारम्बार इसका धोलन करनेयोग्य है । भाई ! तेरा ध्रुव लक्ष्य / ध्येय और उसे लक्ष्य में लेनेवाली पर्याय - ये दोनों तुझमें ही समाहित हैं । तेरा लक्ष्य / ध्येय बाहर में नहीं है और अन्दर पर्याय के भेद पड़ते हैं वह भी तेरा वास्तविक लक्ष्य / ध्येय नहीं है । अभेद वस्तु लक्ष्य / ध्येय है, उसके लक्ष्य से मोक्षमार्ग प्रगट होता है और मोक्ष सधता है; भेद के लक्ष्य से मोक्षमार्ग प्रगट नहीं होता और मोक्ष नहीं सधता । सर्वज्ञपद के भण्डार अन्तर के स्वभाव में भरे हैं, उसमें से वे प्रगट होते हैं । I भाई ! यह बात गम्भीरतापूर्वक से गहराई से लक्ष्य में लेने योग्य है । तेरा स्वभाव जैसा है, उसकी ही यह बात है । तेरी वस्तु ही ऐसी द्रव्य-पर्यायरूप दो स्वभाववाली है। अरे! तेरी वस्तु में जो भरा है, वह समझना तुझे कठिन पड़ता है, यह आश्चर्य है ! स्वयं अपने को न समझे - यह कैसी बात! तेरा वस्तुस्वरूप तो ऐसा ही है और उसे समझने से ही तुझे सुख-शान्ति-धर्म होगा । बन्ध - मोक्ष अंश के हैं, अंशी के नहीं । पर्याय बँधती है और पर्याय छूटती है, यह व्यवहारनय का विषय है । द्रव्य एकरूप रहता

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