Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 236
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा. 227 - किसलिये? क्योंकि ध्यान विनश्वर है और शुद्धपारिणामिक भाव तो अविनाशी है। क्रिया और निष्क्रिय; ध्यान और ध्येय - ऐसी अलग-अलग शैली से वस्तुस्वरूप समझाते हैं। शुद्ध चैतन्यरूप पारिणामिकभाव ध्येयरूप है और उसमें उपयोग की एकाग्रता, वह ध्यान है। यह ध्यान, पर्याय है, औपशमिकादिभावरूप है और वह बदल जाती है; इस कारण वह पर्याय स्वयं ध्येयरूप नहीं है; ध्येयरूप त्रिकाल स्थिर – ऐसा ध्रुवद्रव्य है। उस ध्रुव-ध्येय में तन्मय होकर धर्मी उसका ध्यान करता है। यद्यपि ध्यानदशा के समय तो 'यह ध्येय और यह ध्याता' - ऐसा भेद नहीं रहता है। मोक्षमार्ग को ध्यानरूप कहो, भावनारूप कहो, क्रियारूप कहो, तीन भावरूप परिणति कहो - वह पर्याय है; और पारिणामिक -स्वभावरूप ध्रुवद्रव्य है, वह भावनारूप नहीं है, क्रियारूप नहीं है, परन्तु अक्रिय है; ध्यानरूप नहीं, अपितु ध्येयरूप है। ध्यान पर्याय बदलती रहती है परन्तु ध्येय तो ऐसा का ऐसा रहता है। ध्येय को अभेद होकर ध्याने से उस ध्यान में परम आनन्द की धारा बहती है। ध्यान पर्याय अभेद होकर निर्विकल्परूप से ध्येयरूप परमस्वभाव को ध्याती है। उसे ध्या-ध्याकर पर्याय पुष्ट होती है। ध्येयरूप परम पारिणामिकस्वभाव और उसे ध्यानेवाली पर्यायरूप औपशमिकादि भाव - ये दोनों रागरहित हैं। जितना राग है – फिर भले वह अशुभ हो या शुभ - वह हिंसा है; उस राग से रहित जो शुद्धभाव है, वह परम अहिंसा है - यह जैन उपदेश का रहस्य है - ऐसा पुरुषार्थसिद्धयुपाय में श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव . ने कहा है।

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