Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 234
________________ 225 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा जीवन, वही सच्चा जीवन है... और वही साधु जीवन है । साधु जीवन ही सादा जीवन... 'जीना जाना नेमनाथ ने जीवन.... तेरा जीवन वास्तविक तेरा जीवन....' समस्त धर्मात्मा अपने चिदानन्द स्वभाव के सन्मुख होकर ऐसा रागरहित जीवन जीते हैं, वही सुखी जीवन है। बाहर के संयोग द्वारा आत्मा को जीवित मानना तो पराधीन जीवन है, वह तो भावमरण है, दुःखी जीवन है । अरे जीव ! तुझे तेरा जीवन जीना भी नहीं आता ! तेरा रागरहित चैतन्य जीवन कैसा है - उसे तो पहचान ! निजस्वरूप को भूलकर प्रतिक्षण भावमरण हो रहा है, उसमें से आत्मा को उभार ! निजस्वरूप को पहचान कर अरागी शान्तदशामय जीवन जी यह जीवन, मोक्ष का साधक है। आत्मा का मूलस्वरूप ध्रुव भी है और पलटता भी है । ऐसे अपने मूलतत्त्व को जाने बिना दूसरे जानपने की चाहे जितनी बातें करे, वे सब साररहित हैं, उनमें आत्मा का पता लगे - ऐसा नहीं है । आत्मा तो बाल-गोपाल सबमें विराजमान है - ऐसे निजघर की यह बात है परन्तु वह स्वयं अपने को भूल गया है, निजघर में भरे हुए अपार चैतन्य-वैभव की महिमा भूलकर बाहर में भटकता है । अपनी जो सहज महिमा स्वयं में है, उसे नहीं जानता; इसलिए बाहर में दूसरों के द्वारा मेरी महिमा होवे तो ठीक पड़े - ऐसा मानता है । अरे कैसा भ्रम ! बापू ! बाहर में दूसरे निन्दा के शब्द बोलें या प्रशंसा के शब्द बोलें, उनमें कहाँ तू है ? और वे शब्द कहाँ तुझमें आ जाते हैं ? शरीर में भी तू नहीं और राग में भी वास्तव में तू नहीं है। चैतन्यस्वभाव से भरपूर जो ध्रुवभाव और उसके सन्मुख हुआ पर्यायभाव -

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