Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 233
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा रागरहित निर्मल अवस्थारूप जो क्रिया है, वही आत्मा की सच्ची क्रिया है, वही धर्म की क्रिया है । I - स्वसन्मुख होने पर, 'मैं चिदानन्दस्वभाव हूँ' – ऐसी श्रद्धा हुई, वह सम्यक्त्व की क्रिया हुई । * 224 * स्वसन्मुख होकर 'मैं चिदानन्दस्वभाव हूँ' - ऐसा जाना, वह सम्यग्ज्ञान की क्रिया हुई । स्वसन्मुख एकाग्र होकर लीन हुआ, वह सम्यक्चारित्र की क्रिया हुई । * * स्वसन्मुख एकाग्र होने पर आनन्द का अनुभव हुआ, वह आनन्द की क्रिया हुई । - इस प्रकार आत्मा के अभेदस्वभाव के वेदन में अनन्त गुणों की क्रिया एकसाथ समाहित होती है; राग की क्रिया या जड़ की क्रिया उसमें नहीं है। भाई! यह तेरे आत्मा की क्रिया कही जाती है। यही धर्म की क्रिया है, यही मोक्ष की सच्ची क्रिया है । मोक्ष के लिए क्रिया नहीं है - ऐसा नहीं है; क्रिया तो है परन्तु वह शुद्ध भावना परिणतिरूप है, रागरूप नहीं । सादा भोजन करे, सादगी से रहे, लौकिक अनीति न करे और न्याय-नीति से रहे, इतने मात्र से कहीं सम्यक्चारित्र या धर्म की क्रिया नहीं हो जाती है, यह तो सामान्य शुभराग है । बापू! राग को मोक्षमार्ग मानने से बड़ी अनीति और अधर्म हो जाता है । उसका जीवन तो रागवाला जीवन है । भले बाहर में सादगी दिखायी दे परन्तु उसे सादा जीवन, अर्थात् धर्मजीवन नहीं कहते हैं। सादा जीवन, अर्थात् रागरहित जीवन.... वीतरागभावरूप

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