Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 227
________________ 218 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा .. देखो, यह मोक्ष की क्रिया की बात चलती है। एक ओर मोक्ष की क्रिया तो एक ओर अक्रिय द्रव्यस्वभाव – दोनों एक साथ ही हैं। मोक्ष के कारणरूप क्रिया, अर्थात् शुद्धभावनापरिणति । वह क्रिया किसमें होती है ? क्या द्रव्य में होती है ? नहीं; तो क्या पर में होती है ? नहीं; तो कहाँ होती है? वह क्रिया आत्मा की पर्याय में होती है। भावना' पर्यायरूप है। वह भावना किसे भाती है? अक्रिय ध्रुवस्वभाव को भाती है। स्वभावसन्मुख हुई आत्मा की पर्याय, वह भावना और वही मोक्ष की क्रिया है। वही अविचलित चेतनाविलासरूप धर्मी का व्यवहार है। मोक्षमार्ग में ऐसा व्यवहार है; इससे विरुद्ध व्यवहार, मोक्षमार्ग में नहीं है। वह तो बन्धमार्ग में है। जिस जीव को अपने भाव में बन्ध-मोक्ष के कारण का भी पता नहीं है, वह अज्ञान से बन्ध के कारण को, अर्थात् राग को सेवन करता है और यह समझता है कि मैं मोक्ष का साधन करता हूँ। बापू! ऐसे आत्मा के ज्ञान बिना मोक्षमार्ग तेरे हाथ में नहीं आयेगा। मोक्षमार्ग तो आत्मसन्मुख परिणाम है, वह कहीं रागरूप नहीं है; वह तो रागरहित औपशमिक आदि भावरूप है। स्वसन्मुख -परिणाम, शुद्धोपयोग, भावश्रुतज्ञान, धर्मध्यान, परमार्थ तत्त्व की भावना, सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र - ये सभी रागरहित ही हैं। पर्याय को राग से पृथक् अन्तर्मुख करके शुद्धात्मा को ध्याने से निर्विकल्प आनन्दसहित जो अपूर्व दशा होती है, उसमें ऊपर के समस्त बोल समाहित हो जाते हैं। वह पर्याय स्वयं पर्याय को नहीं ध्याती; अन्तर्मुख अभेद होकर अखण्ड आत्मा को ध्याती है। ध्यान पर्याय स्वयं उत्पन्न-ध्वंसी होने पर भी, उसका ध्येय

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