Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 208
________________ ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा 199 सन्मुख नहीं देखती; वह तो अन्तर्मुख होकर शुद्धद्रव्य को देखती है। शुद्धद्रव्य के सन्मुख होकर उसे देखनेवाली पर्याय, मोक्ष -कारणरूप परिणमित हो जाती है। द्रवतीति द्रव्यं अर्थात् अपनी पर्याय को द्रवित हो, वह द्रव्य - ऐसी व्याख्या आती है, वह वस्तु को लागू पड़ती है। वस्तु अपनी पर्याय को द्रवती है, अर्थात् अपने परिणमनस्वभाव द्वारा उस-उस पर्यायरूप परिणमित होती है। द्रव्य -अंश की अपेक्षा से वस्तु अपरिणामी है और पर्याय-अंश की अपेक्षा से वह परिणामी है; इस प्रकार सत् वस्तु दोनों अंशरूप है। ____ अहो! यह तो जैनधर्म के स्याद्वाद की सुगन्ध है। शुद्धद्रव्य की भावना द्वारा शुद्धपर्याय हुई, अर्थात् द्रव्य-गुण-पर्याय तीनों रागरहित शुद्ध हुए। परमात्मा की भावनारूप जो भाव है, उसके द्वारा चैतन्य परमेश्वर के दरबार में प्रवेश होता है; उस भावना में निश्चयरत्नत्रय समाहित हो जाता है परन्तु उसमें राग का प्रवेश नहीं है। भाई! तेरी मोक्षपर्याय का कारण, देहादि पर में तो नहीं; रागादि उदयभाव में भी नहीं है; ध्रुवस्वभाव के सन्मुख देखने से मोक्षमार्ग प्रगट होता है, तथापि ध्रुवस्वभाव स्वयं मोक्ष के कारणरूप नहीं होता; मोक्ष के कारणरूप भावना, परिणति (पर्याय) है। उत्पाद-विनाशरहित, बन्ध-मोक्षरहित, परम आनन्द से भरपूर जो सहज पारिणामिक परमभाव है, उसमें पर्याय एकाकार होने पर अतीन्द्रिय आनन्द का झरना बहता है – ऐसे निजस्वरूप को भाना-अनुभव करना, उसमें परिणमित होना, वह मोक्ष की सच्ची भावना है, ऐसी भावना द्वारा भव का अभाव होता है। ___ मोक्ष के कारणरूप यह भावना परिणति, चौथे गुणस्थान से शुरु होकर बारहवें गुणस्थान तक होती है। तत्पश्चात् केवलज्ञान

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