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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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सम्यग्दृष्टि की सम्पत्ति कोई अलग है, उसकी चैतन्यसम्पत्ति के समक्ष जगत् की किसी सम्पत्ति का मूल्य नहीं है। जगत् की जड़ सम्पत्तियों को धर्मात्मा अपनी नहीं मानता है। निज सम्पत्ति से भरपूर जो चैतन्यस्वभाव, उसके आश्रय से पर्याय में रत्नत्रय आदि निर्मल सम्पत्ति प्रगट होती है, और उसके द्वारा सिद्धपद प्राप्त होता है; इसके अतिरिक्त पुण्य की सम्पत्ति द्वारा सिद्धपद प्राप्त नहीं हो सकता है। ___अपने आत्मा को शुद्धरूप से भाने से शुद्धता प्रगट होती है। (जो शुद्ध जाने आत्म को, वह शुद्ध आत्मा ही प्राप्त हो) समकिती ने निर्विकल्प ध्यान में अपने आत्मा को शुद्धरूप से ध्याया, तब सम्यग्दर्शन हुआ। श्रावक को सामायिक के प्रयोग में अनन्त बार शुद्धोपयोगरूप निर्विकल्प अनुभूति होती है। अध्रुव-अशरण इत्यादि जो बारह वैराग्य अनुप्रेक्षाएँ हैं उनमें भी वास्तव में ध्रुवस्वभाव को भाने की मुख्यता है। शरीरादि को अध्रुव चिन्तवन करके, चिदानन्द ध्रुवस्वभाव की ओर झुकने पर ही सच्ची वैराग्य भावना कहलाती है; मात्र शरीर के सन्मुख देखकर यह अध्रुव है' - ऐसा चिन्तवन किया करे, वह तो विकल्प है; वह कहीं मोक्ष के कारणरूप भावना नहीं है, मोक्ष के कारणरूप भावना तो शुद्ध स्वभावसन्मुख ढली हुई रागरहितपरिणति है। वह परिणति, उपशम आदि तीन भावोंरूप है। 'मुझे सम्यग्दर्शन होओ, मुझे मुनिदशा होओ....' ऐसे विचाररूप भावना है, उसमें शुभराग है, उसकी यहाँ बात नहीं है; यह तो शुद्धभावरूप जो भवन हुआ, उसका नाम भावना है।
शुद्धस्वभावसन्मुख परिणमते हुए उपशम आदि भावरूप साक्षात् शुद्धपरिणति हुई, वही भावना और वही मोक्षमार्ग है। वह