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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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उनमें कथञ्चित् भिन्नपना है - ऐसा जानकर, भेद का लक्ष्य छोड़कर अभेद आत्मस्वभाव को ध्येय बनाना धर्म है।
देखो, यह धर्मकथा! आत्मा को धर्म कैसे हो? – उसकी यह सच्ची कथा है। जो इससे विरुद्ध कहे -- राग से धर्म होना कहै, "आत्मा, पर का काम करता है - ऐसा कहे वह धर्मकंथा नहीं है; बह तो वस्तु के धर्म से विपरीत ऐसी विकथा है। आत्मा के कारण पर का काम नहीं होता और राग से धर्म नहीं होता; अपनी विकारी या अविकारी दशा को आत्मा स्वयं करता है; अवस्था परिणमित होती है और द्रव्य ध्रुव रहता है। जैसे समुद्र कायम टिककर पानी में तरंग बदलती रहती है; उसी प्रकार चैतन्य समुद्र द्रव्यरूप से कायम टिककर, पर्यायरूप तरंगें बदला करता है। मलिन तथा निर्मल दोनों पर्यायों को तरंग कहते हैं। जब उस शुद्धस्वभाव की भावनारूप परिणमित हो, तब मोक्षमार्ग प्रगट होता है। भगवान के द्वारा कथित ऐसे मार्ग का श्रवण, वह धर्मकथा का श्रवण है।
यहाँ कहते हैं कि जो मोक्षमार्गरूप पर्याय है, वह भावनारूप है; वह पर्याय, शुद्ध पारिणामिकभाव लक्षण शुद्धात्मद्रव्य से कथञ्चित् भिन्न है, सर्वथा भिन्न नहीं कहा परन्तु कथञ्चित् भिन्न कहा है, क्योंकि उस पर्यायरूप आत्मा का परिणमन है परन्तु वह भावनारूप होने से, अर्थात् पर्यायरूप होने से पर्यायार्थिकनय का विषय है, द्रव्यार्थिकनय का विषय नहीं है। इस अपेक्षा से शुद्धात्मद्रव्य से उस परिणाम को कथञ्चित् भिन्न कहा है। .. द्रव्य और पर्याय को एक-दूसरे के साथ कुछ सम्बन्ध नहीं - ऐसा नहीं है; द्रव्य और पर्याय को एक-दूसरे के साथ सम्बन्ध