Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 203
________________ 194 ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा का कारण नहीं है। पाँच भावों के वर्णन में तो इतने ही स्पष्टीकरण आ जाते हैं। बन्ध का अभाव करके मोक्षदशा प्रगट करना, वह क्रिया है और क्रिया वह परिणमन है। कारण-कार्य की क्रियारूप परिणमन पर्याय में है; द्रव्यदृष्टि के विषयरूप द्रव्य में वह नहीं है, इसलिए द्रव्य को निष्क्रिय' भी कहा जाता है। वस्तु स्वयं पूर्णानन्दस्वरूप है, उसमें से पर्यायों का प्रवाह आता है, परन्तु उसमें सामान्य अंश, विशेष अंशरूप नहीं होता, इस अपेक्षा से दोनों कथञ्चित् भिन्न' कहे गये हैं। द्रव्यदृष्टि में यह कारण और यह कार्य – ऐसा भेद दिखायी नहीं देता; कारण-कार्य भी पर्याय में है, अर्थात् मोक्ष का कारण, पूर्व की मोक्षमार्गरूप पर्याय है, यद्यपि यह भी व्यवहार है। वस्तुत: तो पर्यायधर्म (भी) स्वतन्त्र है, निरपेक्ष है। कारण कार्य दोनों एक समय में भी समाहित हो जाते हैं। आत्मवस्तु स्वयं द्रव्यधर्म और पर्यायधर्म – ऐसे दो स्वभाववाली हैं। अपना वास्तविक स्वरूप भूलकर, जीव का अनन्त काल संसार-भ्रमण में ही व्यतीत हुआ है। दुःख क्यों है और उसका अभाव होकर सुख कैसे प्रगट हो? अपने में पलटना, वह क्या है और टिकना, वह क्या है ? किसके लक्ष्य से पूर्ण सुखी हुआ जाता है? - ऐसा विचार करके, सच्चा भान करने का अभी अवसर आया है। दोष क्षणिक है और उसका अभाव हो सकता है। त्रिकाल स्वभाव आनन्दरूप है, उसके सन्मुख होकर उसके साथ पर्याय की एकता करने से पर्याय भी आनन्दरूप हो जाती है और दुःख का अभाव होता है। ध्रुव अनादि-अनन्त स्वभाव, वह पारिणामिकभाव है। उसका

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