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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
सिद्ध करके उसके पाँच भाव समझाये हैं। एक भाव, द्रव्यरूप
और चार भाव, पर्यायरूप हैं। मोक्षमार्ग, पर्याय है, वह उपशमादि तीन भावोंरूप है; उसमें रागादि उदयभावों का अभाव है और पारिणामिकभाव, बन्ध-मोक्ष की अपेक्षा से रहित है।
* एक वस्तु के दो अंश – एक द्रव्य और दूसरा पर्याय; * द्रव्य सामान्यरूप ध्रुव त्रिकाल; * पर्याय, वह विशेष – उत्पाद-व्ययरूप वर्तमानमात्र।
ये दोनों प्रकार के भाव एक वस्तु में रहते हैं परन्तु पारस्परिक ये दोनों भाव, एक नहीं हैं। वस्तुरूप से सामान्य-विशेष दोनों होकर एक हैं परन्तु उसमें जो सामान्य है, वह विशेष नहीं; सामान्य स्वयं एक विशेष अंश में आ नहीं जाता। आत्मा का ध्रुवस्वभाव श्रद्धा-ज्ञान में आता है परन्तु वह एक पर्यायरूप नहीं हो जाता है। अलिङ्गग्रहण के (प्रवचनसार, गाथा १७२ में) बीस अर्थों में इसका अद्भुत स्पष्टीकरण करके परमार्थ आत्मा बतलाया है। ज्ञान की अपूर्णदशा के समय भी ध्रुव तो पूरा ही है और केवलज्ञान प्रगट हो, तब भी ध्रुव उतना का उतना ही है; ध्रुव, कम या अधिक नहीं होता; अधूरी या पूरी पर्याय की अपेक्षा ध्रुव को नहीं है। अपूर्ण पर्याय के समय ध्रुव में अधिक और पूर्णपर्याय के समय ध्रुव में कम – ऐसा नहीं है। मतिज्ञान या केवलज्ञान, दोनों समय ज्ञानगुण इतना का इतना है, उसमें न्यूनाधिकता नहीं है। इस प्रकार ज्ञान की तरह आनन्दादि समस्त गुणों में समझ लेना चाहिए।
गुण में अशुद्धि नहीं होती है। वस्तु के एकरूप शुद्धस्वभाव के लक्ष्य से पर्याय में शुद्धता होती है, वह पर्याय उस समय का सत्