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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
अस्थिरभावों में दृष्टि स्थिर नहीं होती है। महिमावन्त ऐसा अपना स्थिर स्वभाव है, उसमें दृष्टि करे तो वहाँ दृष्टि स्थिर हो और परम आनन्द के वेदनरूप दशा प्रगट हो। ऐसी दशा मोक्ष का कारण है। मोक्ष के ऐसे मार्ग को जीवों ने अनादि से जाना नहीं है, तो वे उसे साधेगे कैसे? अन्दर अपनी वस्तु में कितनी सामर्थ्य और आनन्द है? – उसका माप करना जीव को नहीं आता है। वह माप किस प्रकार निकलता है ? अन्तर्मुख हुई ज्ञान-पर्याय द्वारा उसका माप निकलता हैद्य विकल्प द्वारा उसका माप नहीं निकलता। अन्दर में आनन्द की अकूत खान भरी है; उसका अवलम्बन करके जो भाव होता है, वही पूर्णानन्दरूप मोक्षदशा का कारण होता है, उसे शुद्धउपादानकारण भी कहते हैं।
त्रिकाली द्रव्य को भी शुद्धउपादान कहते हैं और उसके आश्रय से भी शुद्धपर्याय हुई, उसे भी शुद्धउपादान कहते हैं और इसी समय पूर्व पर्यायरूप वर्तते द्रव्य को उत्तरपर्याय का उपादान कहते हैं। द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु में जिस समय जो विवक्षा हो, वह समझना चाहिए। द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु को जाने बिना कार्य -सिद्धि नहीं हो सकती है। पर्यायरहित अकेले ध्रुव को माननेवाले को दुःख बदलकर आनन्द का अनुभव प्रगट होना हो नहीं सकता और ध्रुवरहित अकेली अवस्था माननेवाले को भी दुःखी में से सुखी होना नहीं हो सकता क्योंकि दूसरे समय में तो उसका अस्तित्व ही नहीं रहता – तो सुखी कौन होगा? इसलिए द्रव्य -पर्याय दोनों रूप वस्तु है, उसके स्वीकार से ही सब सिद्धि होती है। कल्पना द्वारा कोई जीव धर्म के नाम पर कुछ भी विपरीत मान ले, उससे कहीं वस्तुस्थिति वैसी नहीं हो जाती है परन्तु उसके