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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
बाद कभी बन्धन नहीं होगा, क्योंकि मुक्ति, जीव का स्वभाव है; बन्धन, जीव का स्वभाव नहीं है।
- ऐसी मोक्षदशा किस कारण से प्रगट होती है? जीव का कौन-सा भाव मोक्ष का कारण होता है ? - यह उसकी बात है। ध्रुवस्वभाव तो शाश्वत् मोक्षरूप है – पहले से, अर्थात् अनादि से ही वह मुक्त है, उसमें कारण-कार्यपने का व्यवहार नहीं है। __द्रव्य-पर्याय का भेद नहीं करना हो, तब अभेदरूप निर्मल -पर्यायरूप परिणमित आत्मा ही मोक्ष का कारण है – ऐसा कहा जाता है। ध्रुवस्वभाव के अवलम्बन से मोक्षदशा प्रगट होती है; इसलिए ध्रुवस्वभाव को भी मोक्ष का कारण कहते हैं परन्तु फिर भी ध्रुव स्वयं सर्वथा मोक्षमार्ग की पर्याय जितना नहीं हो गया है। ध्रुवस्वभाव की समझ पर्याय द्वारा हुई, पर्याय ने स्वयं ध्रुव में अन्तर्मुख होकर शुद्धता का अनुभव किया – इतनी पर्याय की सामर्थ्य अवश्य है, परन्तु इससे कहीं वह पर्याय, ध्रुव नहीं हो जाती। पर्याय तो दूसरे समय में चली जाएगी और ध्रुव ऐसा का ऐसा कायम रहेगा। इस प्रकार दोनों प्रकार से आत्मस्वरूप समझे तो भ्रम मिटता है। भ्रम मिटने पर 'भगवान हूँ' - ऐसा भान हुआ और वह जीव, भगवान के मार्ग में आया। स्वयं ही भगवान होने के लिए मोक्षमार्ग में गमनशील हुआ। पहले भी ऐसा ध्रुवस्वभाव तो था ही, परन्तु राग की रुचि की आड़ में वह दिखता नहीं था। अब पर्याय अन्तर्मुख होने पर वह स्वभाव समझ में आया, पर्याय में उसका अनुभव प्रगट हुआ। इस प्रकार पर्याय नयी प्रगट हुई परन्तु ध्रुवस्वभाव कहीं नया नहीं हुआ - वह तो वही है।