Book Title: Gyanchakshu Bhagwan Atma
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 151
________________ 142. ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा . .जगत् में पूर्ण दशा को प्राप्त अनन्त परमात्मा हैं, वे उनके स्वभाव में वर्तते हैं; इस आत्मा से वे पृथक् हैं। यहाँ निज परमात्मद्रव्य के सन्मुख होने की बात है। दूसरे परमात्मा की तरह मैं भी अपने पूर्ण शुद्ध आनन्दस्वभाव से परिपूर्ण निज परमात्मा हूँ; इस प्रकार निज़ परमात्मा पर दृष्टि करने से परम कल्याण होता है। निज परमात्मा को भूलकर, पर के लक्ष्य से जीव चाहे जितना उपाय करे तो भी कल्याण नहीं होता; उसमें राग और आकुलता ही उत्पन्न होती है। भगवान आत्मा, निज परमात्मद्रव्य है, वह परमस्वभाव है, उसके सन्मुख श्रद्धा-रुचि, दृष्टि-प्रतीति, अर्थात् 'मैं' ही निज परमात्मा हूँ - ऐसी अन्तर अनुभूति, वह सम्यग्दर्शन और सेम्यग्ज्ञान है; उसके साथ स्वरूपाचरणरूप चारित्र होता है। निज परमात्मतत्त्व में अभेदबुद्धि, वह सम्यग्दर्शन है; निज परमात्मातत्त्व का ज्ञान, वह सम्यग्ज्ञान है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का विषय अपना आत्मा ही है और उस निजात्मा का अनुसरण, अर्थात् उसमें लीनता, वह चारित्र है। ऐसा रत्नत्रय, मोक्ष का मार्ग है। अहो! यह तो निज परमात्मद्रव्य की भावना का घोलन है। जीव अपने शुद्धस्वरूप को भूलकर, अनादि से परभावरूप परिणमित होता था, वह चिदानन्दप्रभु के लक्ष्य से, अपने शुद्ध स्वरूप के सन्मुख होकर परमानन्ददशा के वेदनरूप हुआ, अर्थात् निजभावरूप परिणमित हुआ। उस परिणमन धारा में कौन से भाव लागू पड़ते हैं ? औपशमिक आदि तीन भाव लागू पड़ते हैं। । चार भावों में से पुण्य-पापरूप उदयभाव तो मोक्ष का कारण नहीं है। अज्ञानपूर्वक जो अनादि का क्षयोपशमभाव है, वह भी

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