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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
जगत् में इस जीव के अतिरिक्त दूसरे जीव तथा अजीव पदार्थ हैं। जीव की अवस्था में रागादिक हैं, इन सबका अस्तित्व है अवश्य, परन्तु शुद्धस्वभाव वस्तु, अर्थात् सच्चे आत्मा की ओर ढला हुआ जीव, इन सबसे अपने को भिन्न अनुभव करता है । मैं चैतन्य सूर्य हूँ, ज्ञान प्रकाश का पुञ्ज हूँ ऐसी अनुभवदशारूप परिणमित जीव, वह रागादिक का कर्ता - भोक्ता नहीं होता है । निर्मल पर्याय हुई, उसके साथ जीव अभेद है, अर्थात् जैसे निर्मल ज्ञानपर्याय में परभाव का कर्ता-भोक्तापना नहीं है; उसी प्रकार उस पयरूप से परिणमित जीव भी, परभाव का कर्ता-भोक्ता नहीं है; शुद्धपर्याय में अथवा अखण्डद्रव्य में, रागादि का कर्तृत्व- भोक्तृत्व नहीं है - ऐसे आत्मा को पहचानना ही सच्चे आत्मा की पहचान है और वही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है ।
अरे! तेरी चैतन्य जाति में ज्ञान - आनन्द भरा है। सिद्ध परमात्मा जैसे गुण, तेरे में भरे हैं। भाई ! शरीर आदि तो जड़ के होकर रहे हैं, ' वे तेरे में नहीं आये हैं और तुझरूप नहीं हुए हैं। जो अपने नहीं हैं, तथापि 'उनका में कर्ता' - ऐसा अज्ञानी मानता है, वह मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व का महापाप, अनन्त दुःख का कारण है। शुद्ध ज्ञातास्वभावी आत्मा को पर का अथवा राग का कर्ता मानने पर अपने ज्ञाताभाव की हिंसा होती है - चैतन्यप्राण का घात होता है, वही हिंसा है ।
ज्ञानी अथवा अज्ञानी कोई भी जीव अपने से भिन्न जगत् के किसी भी पदार्थ को कर अथवा भोग नहीं सकता। अन्तर इतना है कि अज्ञानी ' मैं कर्ता हूँ मैं भोगता हूँ' इस प्रकार स्व- पर की एकता की मिथ्यामान्यता करता है और ज्ञानी, स्व पर की भिन्नतारूप