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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
बात की है; इसलिए अकेला क्षायिकज्ञान ही अकर्ता है - ऐसा नहीं समझना। क्षायिकज्ञान की तरह समस्त ज्ञान, कर्म के अकर्ता ही हैं -- ऐसा ज्ञान हुआ।
तीर्थकर भगवान पहले साधकदशा में मुनिरूप से थे, तब तो वन-जङ्गल में रहते थे और अब केवलज्ञान होने के बाद तो समवसरण में पुण्यफल के ठाठ के मध्य समवसरण में विराजते हैं -- तो क्या वे पुण्यफल के भोक्ता हैं - नहीं; उसके भी ज्ञाता ही हैं। इसी प्रकार पहले साधुदशा में तो भगवान मौनरूप से रहते थे और ध्यान धरते थे; साधु होने के बाद तीर्थङ्कर भगवान, केवलज्ञान होने तक मौन ही रहते हैं और क्षायिकज्ञान प्रगट हुआ, तब समवसरण में छह-छह घड़ी तक प्रतिदिन चार समय उपदेश देते हैं, अर्थात् प्रतिदिन दस घण्टे वाणी का प्रवाह चलता है; - तो क्या क्षायिकज्ञान में उस वाणी का कर्तृत्व है? नहीं; पहले से ही चिदानन्दस्वभाव की दृष्टि से अकर्तारूप से परिणमते-परिणमते क्षायिकज्ञान हुआ है, वह भी अकर्ता ही है। __पहले देहादिक का या रागादिक का कर्तृत्व मानें और उसे क्षायिकज्ञान प्रगट हो - ऐसा कभी नहीं होता है। सम्यग्दृष्टि को पहले से ही अकर्तास्वभाव की दृष्टि का जोर है, वह क्षायिकज्ञान को साधता है।
तीर्थङ्करत्व, वह पुण्य का फल है परन्तु तीर्थङ्करों का केवलज्ञान, उस पुण्यफल का भोक्ता नहीं है। वह पुण्य, उदय में आकर क्षय होता रहता है। उदय है, वह क्षयरूप है; बन्धन का कारणरूप नहीं। इस प्रकार वह पुण्यफल, भगवान को अकिञ्चितकर है, उसके निमित्त से समवसरण की रचना होती है और दिव्यध्वनि निकलती