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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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भवदुःख देनेवाली है। मिथ्यात्व मिटने पर जीव, सिद्धसदृश है ... ऐसा कहा। जैसे सिद्ध, वैसा मैं' - ऐसा भान हुआ, तब मिथ्यात्व छूट गया। पहले ऐसी पहचान करना ही धर्म की महान् क्रिया है। ___आत्मा, विज्ञानघन है। जैसे, केवलज्ञान होने पर उस क्षायिकज्ञान में राग का कर्ता-भोक्तापना किञ्चितमात्र भी नहीं है; उसी प्रकार साधकदशा में भी ज्ञान वैसे ही स्वभाववाला है।
-- केवलज्ञान होने पर सर्वज्ञ क्या करते हैं ? जानते हैं। -- साधकदशा में ज्ञानी का ज्ञान क्या करता है? .....जानता है।
बस! यही आत्मा का काम है। ज्ञान परिणमन ही आत्मा है; उसमें पर का कर्तापना या भोक्तापना नहीं है। अपनी अवस्था में उस-उस काल में वर्तते राग को भी ज्ञान तो जानता ही है। राग को जानने पर ज्ञान तो ज्ञानरूप ही रहता है; रागरूप नहीं हो जाता है।
साधकदशा में शुद्धज्ञानदृष्टि से परिणमित आत्मा, उस भूमिका में रागादि होने पर भी उन्हें कर्ता-भोक्ता नहीं है। क्षायिकज्ञान होने के बाद वह आत्मा, रागरहित किन्तु दिव्यवाणी को कर्ता होगा? तो कहते हैं कि नहीं; भगवान दिव्यध्वनि के कर्ता नहीं हैं, तथा तीर्थङ्करप्रकृति के भोक्ता भी नहीं हैं। क्षायिकज्ञान, अपनी अचिन्त्य सामर्थ्य से सबको जाननेवाला है परन्तु वह किसी अन्य का कर्ता--भोक्ता नहीं है। केवलज्ञान होने पर सम्पूर्ण शक्ति विकसित हो गयी; इसलिए पर का कुछ कर दे - ऐसा नहीं है। उपदेशरूप वाणी, सहजरूप से अर्थात् कर्ता हुए बिना निकलती है। इस प्रकार नीचे से ठेठ तक समस्त ज्ञान में, पर का अकर्ता-अभोक्तापना समझना चाहिए। ऐसा ही आत्मस्वभाव है। यहाँ क्षायिकज्ञान की