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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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शुद्ध हुई, उसमें रागादि का कर्तृत्व नहीं रहा। जाननेरूप परिणभन आत्मा का है परन्तु रजकणों का संयोग-वियोग हो, उसरूप आत्मा परिणमित नहीं होता, उनसे तो पृथक् ही है - ऐसा ज्ञानस्वभावी
आत्मा है। ____ बड़ों का, अर्थात् सर्वज्ञ भगवान का दृष्टान्त देकर यहाँ आत्मा का स्वरूप समझाते हैं कि भाई! तू तो ज्ञान है न! राग का परिणमन, वह कोई तेरे ज्ञान का कार्य नहीं है, ज्ञान उसमें तन्मय नहीं है, उसका कर्ता नहीं है, भोक्ता नहीं है परन्तु जाननेवाला ही है। 'उसका जाननेवाला है', अर्थात् कहीं उसके सन्मुख होकर जानने की बात नहीं है परन्तु जाननेवाला है, अर्थात् ज्ञान जाननेरूप ही परिणमित होता है - ज्ञानभावरूप ही स्वयं परिणमता है; इसलिए वह राग के समय भी जाननेवाला ही है - ऐसा कहा है। अपने ज्ञायकस्वरूप का स्वसंवेदन हुआ, उसका ही वह कर्ता--भोक्ता है। अपने अनन्त गुण के रस को वह वेदता है। वह ज्ञान, स्वभाव के अनन्त भावों से भरपूर है। राग से भिन्न ज्ञान के वेदन में अनन्त गुणों की शुद्धि का वेदन है। . .
धर्मी को सम्यग्दर्शन होता है और उस भूमिका में राग होता है, शुभाशुभकर्म का उदय आता है, उसे वह जानता है। अपने ज्ञान में रहकर उस उदय को पररूप जानता है। मैं, उदयरूप हो गया या वह उदय, मुझ में आ गया - ऐसा वह नहीं मानता; इसलिए उसे नहीं भोगता - उसमें नहीं मिल जाता; पृथक् का पृथक् ही रहता है। इसी प्रकार उसे अनन्त कर्म, प्रति समय निर्जरित होते हैं, उसे भी वह जानता है।
अज्ञानी तो ज्ञान को रागरूप मानता है, शुभाशुभकर्म के फल