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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
अभोक्ता है। अहो! ऐसे आत्मा का भान हुआ और मिथ्यात्व का नाश हुआ, वहाँ जीव सिद्धसदृश है। जैसे, केवलज्ञान होने पर रागादि का कर्ता-भोक्तापना किञ्चित्मात्र भी नहीं है, उसी प्रकार यहाँ भी ज्ञान का ऐसा ही स्वभाव है-ऐसा धर्मीजीव जानता है।
अहो! शुद्ध परमपारिणामिक आत्मस्वभाव के आश्रय से सन्त मोक्षमार्ग को साधते हैं। मोक्ष को साधनेवाले वे सन्त, सिद्ध के साधर्मी होकर बैठे हैं। संसारभावों से दूर-दूर अन्तर में सिद्ध के साधर्मी होकर वे सिद्धपद को साध रहे हैं-ऐसे वीतरागी सन्तों की यह वाणी है। स्याद्वाद की सुगन्ध से भरपूर यह वाणी, जगत् को मोक्षमार्ग बतलाती है...और जगत् के ज्ञानचक्षु खोलती है। ___ ज्ञायकभावरूप आत्मा, द्रव्यार्थिकनय से शुद्ध पारिणामिक परमभावरूप है, उसका यह वर्णन चल रहा है। ऐसे परमभाव की भावना से मोक्षमार्ग प्रगट होता है-ऐसा बाद में कहेंगे। यह भावनारूप मोक्षमार्ग, पर्याय है। बन्धपर्याय छूटना और मोक्षपर्याय प्रगट होना -- ऐसी क्रिया, पर्याय में है; ध्रुवद्रव्य में ऐसी बन्ध- मोक्षपर्यायरूप नहीं है। ध्रुवभाव है, वह पर्यायरूप नहीं होता। पर्याय का कर्ता पर्यायधर्म है।
शुद्ध द्रव्यार्थिकदृष्टि से जीव कैसा है ? सर्वविशुद्ध परम पारिणामिकभावरूप है, शुद्ध उपादानरूप है; उसमें रागादि का कर्तृत्त्व-भोक्तृत्व नहीं है। निर्मलपर्याय या मलिनपर्याय, वह द्रव्यार्थिकनय में नहीं आती; द्रव्यार्थिकनय में तो एकरूप द्रव्य ही आता है। इस अपेक्षा से द्रव्यार्थिकनय में तो जीव को बन्ध मोक्ष के परिणाम से रहित निष्क्रिय कहा गया है। उस समय शुद्धपर्याय है अवश्य, परन्तु द्रव्यदृष्टि में उसका भेद नहीं है। भावश्रुत प्रमाण,