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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
देखो भाई! आत्मा की यह सच्ची विद्या ही हित करनेवाली है। लोगों को परदेश की विद्या के अध्ययन की महिमा आती है परन्तु वह तो नास्तिक और कुविद्या है। आत्मा के हित की सच्ची अध्यात्मविद्या अभी यहाँ तो अपने भारतदेश में ही है, उसकी ही सच्ची महिमा है। आत्मा की ऐसी बात कान में पड़ना भी बहुत कठिन है। कठिन है परन्तु मधुर, मीठी, अमृत जैसी है। वाह! अमृत बरसा रे प्रभु! पञ्चम काल में । यह समझने पर आत्मा में अतीन्द्रिय आनन्द का अमृत झरता है।
अन्दर शुद्धनयरूपी द्वार में प्रवेश करके, मोक्ष का अनुभव करने की यह बात है। शुद्धनयरूपी द्वार में प्रवेश करने से क्या दिखता हैं? अनन्त गुण, शुद्धपारिणामिकभाव से जिसमें वर्तते हैं - ऐसा शुद्ध जीव दिखता है। आत्मा को शुद्धद्रव्यार्थिकनय से देखने पर वह परमपारिणामिकभावरूप दिखता है। नय है, वह भावश्रुतज्ञान का अंश है और वह उपयोगात्मक है, अर्थात् शुद्ध द्रव्य को लक्ष्य में लेकर उसे ध्येय करनेवाले शुद्धनय का उपयोग उस शुद्धद्रव्य
की ओर ढला हुआ है और वह पर्याय है। त्रिकाल द्रव्य का निर्णय त्रिकाल द्वारा नहीं होता है, त्रिकाल का निर्णय वर्तमान द्वारा होता है। ध्रुव वस्तु का लक्ष्य तो पलटता ज्ञान करता है; ध्रुव स्वयं कहीं ध्रुव का लक्ष्य नहीं करता। शुद्धद्रव्य त्रिकाल ध्रुव सत् है, परन्तु 'है' उसकी अस्ति का निर्णय किसने किया? निर्णय करना, वह कार्य है; ध्रुव तो कार्यरूप नहीं है, कार्यरूप तो पर्याय है और पर्याय, उपशमादिभावरूप है; ध्रुवस्वभाव पारिणामिक परमभाव है। ___कर्ता-भोक्तापना, वह पर्याय का कार्य है; द्रव्यदृष्टि में वह कर्ता--भोक्तापना नहीं है। आत्मा में पर का कर्ता-भोक्तापना तो