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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
कभी हिलता नहीं-डुलता नहीं, अर्थात् उत्पाद - व्ययरूप नहीं होता । चारों भाव, क्षणिकपर्यायरूप हैं, वह क्षण-क्षण में पलटती है, इस प्रकार आत्मा में द्रव्यरूप और पर्यायरूप भाव हैं। ऐसे द्रव्य - पर्याय, दोनों स्वरूप आत्मवस्तु है। एक ही वस्तु में द्रव्य और पर्याय, दोनों परस्पर सापेक्षरूप से रहे हुए हैं; इसलिए द्रव्य - पर्याय का जोड़ा, वह वस्तु है।
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सुमति और कुमति (ज्ञान), दोनों पर्याय हैं । उनमें सुमति, वह आत्मा की सच्ची परिणति है और कुमति, वह आत्मा की सच्ची परिणति नहीं है, तथापि दोनों परिणतियाँ समय--समय के परिणमनवाली हैं; गुण और द्रव्य ध्रुव रहते हैं । संसारपर्याय एक समय की है, इसी तरह सिद्धपर्याय भी एक समय की है; वह भले. ही सादि-अनन्त काल तक ऐसी की ऐसी हुआ करे; इसलिए उसे ध्रुवगति भी कहा है परन्तु वह कहीं त्रिकाली द्रव्य - गुणरूप पारिणामिकभाव से नहीं है परन्तु क्षायिकभावपने है । द्रव्य - गुण नये नहीं प्रगट होते, मोक्षपर्याय तो नयी प्रगट होती है । जो प्रगट होती है, वह पर्याय और जो टिकते हैं, वे गुण । गुण में कभी आवरण नहीं होता; द्रव्य - गुण तो सदा निरावरण हैं । आवरण होना और प्रगट होना, वह पर्याय में है। वस्तु में द्रव्यरूप जो पारिणामिकभाव है, उसमें हीनाधिकपना नहीं होता; उत्पन्न होना या विनष्ट होना नहीं होता; आच्छादन होना या प्रगट होना नहीं होता। यह सब तो पर्याय में है; इसलिए चार भाव, पर्यायरूप हैं ।
भाई ! तेरी आत्मवस्तु के ऐसे भावों को जान तो तुझें पता पड़ेगा कि धर्म कहाँ से आयेगा ? तेरा धर्म, अर्थात् तेरा मोक्षमार्ग बाहर से नहीं आता । तेरा धर्म, तेरी वस्तु में ही है और उसमें भी