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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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औपशमिक सम्यग्दर्शन होता है और इस औपशमिकभाव से धर्म का प्रारम्भ होता है; फिर चारित्र में उपशमभाव, उपशमश्रेणी के समय मुनि को होता है। उपशमभाव, यह निर्मलभाव है, इसमें मोह का वर्तमान उदय नहीं है, तथा उसका सर्वथा क्षय भी नहीं हो गया है परन्तु जैसे नितरे हुए स्वच्छ पानी में नीचे कीचड़ बैठ गया हो, वैसे ही सत्ता में कर्म पड़ा है – जीव की ऐसी निर्मलपर्याय को औपशमिकभाव कहते हैं।
क्षायोपशमिकभाव - इस भाव में किञ्चित् विकास और किञ्चित् आवरण है। ज्ञानादिक का सामान्य क्षयोपशमभाव तो सभी छद्मस्थ जीवों को अनादि से होता है परन्तु यहाँ मोक्ष के कारणरूप क्षयोपशमभाव बतलाना है; इसलिए सम्यग्दर्शनपूर्वक का क्षयोपशमभाव लेना।
क्षायिकभाव - आत्मा के गुणों की सम्पूर्ण शुद्धदशा प्रगट हो और कर्मों का सर्वथः क्षय हो जाए - ऐसी दशा, वह क्षायिकभाव है।
यह तीनों भाव, निर्मल पर्यायरूप हैं; ये अनादि से नहीं होते, परन्तु आत्मा की पहचानपूर्वक नये प्रगट होते हैं और ये भाव, मोक्ष के कारणरूप हैं - ऐसा आगे समझायेंगे।
औदयिकभाव - जीव का विकारभाव, जिसमें कर्म का उदय निमित्त होता है। अनादि से समस्त संसारी जीवों को
औदयिकभाव होता है। मोक्षदशा होने पर उसका सर्वथा अभाव होता है। औदयिकभाव शुभ-अशुभ अनेक प्रकार के हैं, वे कोई - भाव, मोक्ष का कारण नहीं होते। धर्मी जीव अपने ज्ञान को । औदयिकभावों से भिन्न अनुभव करता है।