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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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उसी में समाती है, अर्थात् एकाग्र होती है। ऐसे अखण्ड शुद्धद्रव्य को प्रतीति और अनुभव में लेकर, धर्मी जीव मोक्ष को साधता है। ध्रुव की दृष्टि में 'मैं इस शुद्धपरिणाम को करता हूँ' - ऐसा भी भेद नहीं दिखता।
आत्मा का ऐसा स्वभाव, अनुभव में आ सकने योग्य है। कोई अचिन्त्य अलौकिक विकल्पातीत स्वभाव होने पर भी, उसे स्वानुभव में लिया जा सकता है। अनन्त जीव, शुद्धात्मा का अनुभव कर-करके मोक्ष गये हैं। अरे! ऐसे मनुष्य अवतार में तुझे ऐसा परम सत्य प्राप्त हुआ; सर्वज्ञ से सिद्ध सत्य हुआ और वीतरागी सन्तों ने स्वयं अनुभव किया हुआ आत्मस्वरूप तुझे सुनने को मिला तो उसे अनुभव में लेना। श्रवणमात्र न रखकर अनुभव में लेना। अनुभव में आवे - ऐसा यह तत्त्व है। कहीं अनुभव में न आ सके -- ऐसा नहीं है। इस प्रकार आत्मा को ख्याल में और अनुभव में न ले, तब तक उस जीव ने आत्मा को जाना है - ऐसा नहीं कहा जा सकता, अर्थात् वह धर्म करता है - ऐसा नहीं कहा जा सकता। - सत् शाश्वत् आत्मा जो एक ज्ञायकभाव है, वह शुभाशुभभावोंरूप परिणमित नहीं होता; इसलिए वह प्रमत्त या अप्रमत्त नहीं है। ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो दु जो भावो - यह बात समयसार की छठवीं गाथा में करके, आचार्यदेव ने शुद्ध आत्मा दिखलाया है। ऐसे आत्मा को परद्रव्यों से भिन्नरूप से उपासित करना / अनुभव करना, वह मोक्षमार्ग है। तेरे उपयोग के व्यापार को ऐसे शुद्धात्मा में जोड़ तो तेरा व्यापार सफल होगा। यह व्यापार ऐसा है कि जिसमें लाभ ही होता है; कमी आती ही नहीं। ध्रुव के