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ज्ञानचक्षु : भगवान आत्मा
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आत्मा, चेतन और शरीरादि, जड़ हैं। आत्मा से भिन्न ऐसे शरीरादि जड़-पदार्थों का जगत् में अस्तित्व है परन्तु उनरूप आत्मा परिणमित नहीं होता और पुण्य-पाप के विकल्परूप से परिणमित होने का कार्य भी शुद्धज्ञान में नहीं है। शुद्धज्ञान कहो या आत्मा कहो; अभेद से दोनों एक हैं, उसमें विकार का कर्तृत्व नहीं है। कर्तृत्व, अर्थात् परिणमन; परिणमित हो, वह कर्ता है। शुद्धज्ञानस्वरूप आत्मा, शरीर - वाणी - भाषा इत्यादि अचेतन द्रव्यरूप से तीन काल में परिणमित नहीं होता; इसलिए उनका कर्तृत्व नहीं है और शुद्धात्मा के सन्मुख जो ज्ञान हुआ, वह ज्ञान, परभावों से पृथक् हुआ है; इसलिए उन परभावोंरूप परिणमित नहीं होता; अत: उंसमें परभावों का कर्तृत्व नहीं है। ___ अब, परभाव से पृथक् शुद्ध आत्मा में भी द्रव्य और पर्याय - ऐसे दो भाव हैं; उनमें से द्रव्यरूप ध्रुवस्वभाव को देखनेवाली दृष्टि में पर्याय के उत्पाद-व्यय नहीं दिखते। वह दृष्टि, एक परमभाव को ही देखती है और वह परमभाव, स्वयं बन्ध-मोक्ष के परिणामरहित है; इसलिए शुद्धद्रव्यार्थिकनय से ध्रुवस्वभाव है, उसमें शुद्धपरिणाम का भी कर्तृत्व नहीं है क्योंकि उस नय में पर्याय नहीं आती, वह तो शुद्धद्रव्य को ही देखता है। मोक्षमार्ग प्रगट होता है, वह पर्याय है; वह कहीं द्रव्य नहीं है और द्रव्य स्वयं कहीं पर्यायरूप नहीं है। वस्तु में द्रव्य और पर्याय -- ऐसे दो नय के विषय पृथक् हैं।
देखो भाई! यह बात समझने योग्य है। भगवान आत्मा नित्यानन्द का नाथ अखण्ड चैतन्यवस्तु, वह सम्यग्दर्शन का विषय है, वह धर्मी का ध्येय है। उस ध्येय के ध्यान से निर्मलपर्याय प्रगट होकर